Re: आस्तिकता के कुछ दुष्परिणाम
पर आगे चलकर इस सरल धर्म में भी ओझाओं और पुरोहितों तथा उनके जटिल अनुष्ठानों के कारण संश्लिष्टता और जटिलता आई, और धर्म शासक वर्ग के स्वार्थों का साधन बन गया। उपनिषदों में हमें अनेक स्थलों पर धर्म के इस शासक-समर्थक रूप के प्रति विरोध के स्वर सुनाई पड़ते हैं। आगे चलकर इसी विरोध की प्रक्रिया में से चार्वाक, बौद्ध और जैन जैसे नास्तिक दर्शनों का विकास हुआ।
ईश्वर और परलोक की अवधारणाओं ने कैसे अब तक के मानव जाति के एक क्रूरतम यथार्थ - वर्ग विभाजन या मनुष्य और मनुष्य के बीच भयंकर सामाजार्थिक विषमता - को सहज बनाकर शासक-शोषक वर्ग के हितों की रक्षा की, और उनके विरुद्ध शासित-शोषित वर्गों के विद्रोह की सम्भावनाओं को टाला। इसकी सहज स्वीकृति आधुनिक युग के एक नामी तानाशाह नेपोलियन बोनापार्ट के (मन्मथनाथ गुप्त द्वारा उद्धृत) इस कथन में दिखाई देती है - ''बिना धर्म के भला किसी राष्ट्र में सुव्यवस्था कैसे कायम रह सकती है? समाज व्यक्तियों के भाग्यों की विषमता के बिना चल नहीं सकता और धर्म के बिना ये विषमताएँ टिक नहीं सकतीं। जिस समय एक व्यक्ति भूख से मरा जा रहा हो और दूसरा जरूरत से ज्यादा खा-खाकर बीमार हो रहा हो, उस समय पहला व्यक्ति तब तक अपनी स्थिति को सहने के लिए तैयार नहीं होगा, जब तक कि कोई धर्माधिकारी व्यक्ति उसे यह न कहे कि यही प्रभु की इच्छा है। संसार में अमीर और गरीब ईश्वर के ही बनाए हुए हैं। पर परलोक में यह बँटवारा पूरी तरह बदल जाएगा!''
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