Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुंह में डाल दो।’’ देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुंह में डालते ही जोर से दरवाजा बन्द हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीली राह से घर की तरफ रवाना हुए।
पहर भर दिन चढ़ा होगा जब ये दोनों लौटकर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। वीरेन्द्रसिंह ने पूछा, ‘‘अहमद को कहां कैद करने ले गये थे जो इतनी देर लगी ?’’ तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूं, आज आपको भी वह जगह दिखाऊंगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदलकर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।’’ इसके बाद वह सब बातें भी वीरेन्द्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे वीरेन्द्रसिंह ने बहुत पसन्द किया।
स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुरसत-पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गये। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे-‘‘हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएंगे।’’ आखिर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर वीरेन्द्रसिंह राजा के साथ महल में चले गये और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आये, देवीसिंह को भी साथ लाये और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।
दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ वीरेन्द्रसिंह को उस घाटी में ले गये जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देखकर बहुत ही खुश हुए और बोले, ‘‘भाई, इस जगह को देखकर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘पहले-पहल इस जगह को देखकर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूंगा।’
वीरेन्द्रसिंह इस बात को सुनकर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहां का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुनकर वीरेन्द्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जायेगा।
वे दोनों वहाँ से रवाना हो अपने महल आये। कुमार ने कहा, ‘‘भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चन्द्रकान्ता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है ? देखिए, तो क्या होता है ? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूंगा।’’ वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूंगा, इस तरह एकदम डरपोक होकर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।’’
तेजसिंह ने कहा, ‘‘अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पांच-चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चन्द्रकान्ता का महल रह जायेगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।’’ इस बात को वीरेन्द्रसिंह ने भी पसन्द किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।
कुछ दिन बाद वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता सुरेन्द्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिमाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जाकर हाल-चाल ले आवें।
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