कचनार की कली
सत्रह की उम्र जैसे पगडण्डी पर लुढकती कोसको की गेंद... कबड्डी-कबड्डी की आवाज़ लगाती बिना टूटन की साँस... हर चौकोर खाने में चपटा सा टुकड़ा रख कर कित-कित खेलती साक्षी जब आईने में शुरू से खुद को देखती तो लगता दुनिया यों उतनी बुरी भी नहीं है जैसाकि बाबूजी कहते फिरते हैं...
सूना सा गला सादगी के प्रतीक थे... और नाक-कान में नारियल के झाड़ू की सींक... दो चोटी कस कर बांधना... फिर एक सिरे से पलक खोलती तो एक ही चीज़ की कमी लगती- बिंदी की .... तो ये लगाई बिंदी और हो गयी तैयार साक्षी.. अब देखो इतने में कैसी खिल उठी है. अब ज़रा सी देर में धूप भंसा घर के खपरैल के नीचे सरकेगी और वो होगी खेल के मैदान में सबकी छुट्टी करने.
|