Re: श्रीयोगवशिष्ठ
उस समय वशिष्ठादिक की सभा बैठी थी । वहाँ वशिष्ठजी के साथ कथा वार्त्ता की । राजा दशरथ ने उनसे कहा कि हे रामजी! तुम शिकार खेलने जाया करो । उस समय रामजी की अवस्था सोलह वर्ष से कई महीने कम थी । लक्ष्मण और शत्रुघ्न भाई साथ थे, पर भरतजी नाना के घर गये थे । निदान उन्हीं के साथ नित चर्चा हुलास कर और स्नान, सन्ध्यादिक नित्य कर्म और भोजन करके शिकार खेलने जाते थे । वहाँ जो जीवों को दुःख देनेवाले जानवर देखते उनको मारते और अन्य लोगों को प्रसन्न करते थे । दिनको शिकार खेलने जाते और रात्रि को बाजे निशान सहित अपने घर में आते थे । इसी प्रकार बहुत दिन बीते । एक दिन रामजी बाहर से अपने अन्तःपुर में आकर शोकसहित स्थित भये । हे भारद्वाज! राजकुमार अपनी सब चेष्टा और इन्द्रियों के रससंयुक्त विषयों को त्याग बैठे और उनका शरीर दुर्बल होकर मुख की कान्ति घट गई । जैसे कमल सूखकर पीतवर्ण हो जाता है वैसे ही रामजी का मुख पीला हो गया जैसे सूखे कमल पर भँवरे बैठे हों वैसे ही सूखे मुखकमल पर नेत्ररूपी भँवरे भासने लगे । जैसे शरत्काल में ताल निर्मल होता है वैसे ही इच्छारूपी मल से रहित उनका चित्तरूपी ताल निर्मल हो गया और दिन पर दिन शरीर निर्बल होता गया ।
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