Re: मेरी कहानियाँ / एक टुकड़ा मौत
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नन्हें अशोक को दादा जी के स्वर की उदासी ने द्रवित कर दिया.अशोक दादा जी के पड़ोस में रहने वाला लड़का था. आसपास के अन्य बच्चे भी दादा जी को दादा जी कह कर ही सम्बोधित करते थे. दादा जी अपने मकां में अकेले रहते थे. उन्हें रिटायर हए कोई 5-6 बरस हो गये थे. ज्यादातर घर ही में रहते थे. बच्चों से उनको बड़ा स्नेह था. अशोक ने दादा जी को उदास देखा तो वहीँ बैठ गया. कहने लगा,
“दादा जी, मेरे पापा कहते हैं कि मुर्गियां पालने के लिए बैंक वाले भी पैसे देते हैं. आप भी और मुर्गियां ले आओ न ...”
अशोक बेचारा क्या जाने दादा जी के दर्द को. वे उसे समझाते हए बोले,
“ज्यादा मुर्गियां ला कर मैं क्या करूँगा, बेटा. मैंने कोई व्यापार तो करना नहीं. यही पांच छः मुर्गियां बहुत हैं सम्हालने को.”
इस प्रकार अशोक दादा जी से घुलमिल गया था. अक्सर शाम के समय यहीं आ जाता और देर तक बैठा बतियाता रहता. एक दिन बहुत सोच विचार के बाद दादा जी से बोला,
आप अकेले क्यों रहते हैं? यहां कोई भी तो ऐसे नहीं रहता जैसे आप रहते हैं. सब लोग अच्छे अच्छे कपडे पहनते हैं, स्कूटर मोटरों पर घुमते हैं, सिनेमा देखने जाते हैं. और कभी कभी पिकनिक पर भी जाते हैं. सच कितना मजा आता है पिकनिक में ! बताओ न दादा जी?”
दादा जी कुछ सोच कर बोले, “तू बहुत समझदार बच्चा है, अशोक. तू मेरे बारे में कितना सोचता है. कितना ख्याल रखता है मेरा. मैं तुझे सब बताऊंगा. मैं आ रहा हूँ, तू दो मिनट बैठ.”
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