Re: मेरी कहानियाँ / एक टुकड़ा मौत
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दादा जी उठ कर दूसरे कमरे से एक पुरानी एल्बम ले आये.उसे खोल कर अशोक को दिखाने लगे. दिखाते हुये बोलते भी जाते, “यह मेरा पोता है- दीपक, और ये हैं इसके मम्मी पापा. ये देख दीपक अपने पापा के कंधे पर बैठा है. और देख तो यहां वो तीन पहिये वाली साइकिल चला रहा है. और देख ... ये ...और .... और ...”
दादा जी का गला भर आया. उनके मुख-मंडल पर उदासी की बदली छा गयी थी. अशोक एकटक दादा जी को देखता रहा. फिर पूछ बैठा, “तो दीपक और उसके मम्मी पापा यहां क्यों नहीं रहते? कुछ लोग कहते हैं कि वो मर गये. लोग ऐसा क्यों बोलते हैं दादा जी?”
दादा जी अपने विचारों में डूब गये थे. अशोक की बात सुन कर उनका मन टीस से भर उठा. उनके दिल पर मानो हथोड़े से चोट की गयी हो. वो बोले, “हाँ वो मर गये बेटा. वो मुझे छोड़ कर चले गये. वो तीनों एक ट्रेन हादसे में मारे गये. काश उस दिन उनकी जगह मैं होता. अरे ... तू जानता है अगर वो जीवित होते तो क्या यह घर यूँही सुनसान पड़ा रहता? नहीं न? बोल?”
अपने विचारों में डूबे हुये और अपनी यादों को टटोलते हुये उन्हें ये भी नहीं मालूम पड़ा कि कब अशोक की मां ने उसे आवाज दी वह उनके पास से उठ कर अपने घर चला गया.
अशोक ने खाली जमीन में फूलों और सब्जियों के बीज बो दिये. कुछ ही दिनों में दादा जी के आँगन में गुलाब की गंध तैरने लगी, सूरजमुखी इतराने लगा और सब्जियों की बेलें लहराने लगीं. दादा जी और अशोक मिल कर पानी डाला करते. अब वहां पर जंगली पौधों के स्थान पर रंग-बिरंगे अति कोमल फूl दिखाई देने लगे. क्यारियों के नित बदलते रंग के साथ साथ दादा जी का मन भी क्रियाशील होने लगा.
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