Re: ब्लॉग वाणी
हॉस्टल यानी एलिस इन वंडरलैंड
सुजाता
अच्छी लड़की। सीधा कॉलेज। कॉलेज से सीधा घर। आंखे हमेशा नीची। लम्बी बांह के कुर्ते और करीने से ढंकता दुपट्टा। पढ़ने में होशियार। शाम को कभी घर से बाहर नही निकली। यहां कैम्पस में सारी शिक्षा,सारी संरचनाएं ढह गई। छत, आंगन और सड़कें एकाकार हो गयीं। आजादी का पहला अहसास। हॉस्टल के कमरे में पहली बार वोदका को लिम्का में मिलाकर पिया और घंटों मदहोश रही। कैम्पस में ढलती शाम को सड़क के दोनो किनारे फुटपाथ के किनारे बनी मुंडेरी पर दो-दो छायाएं दिखाई पड़ जातीं। मुख पर एक स्मित रेखा खिंच आती। हॉस्टल की जिन्दगी। परम्परावादी घरों से निकली हुई लड़की के लिए एक एडवेंचर एलिस इन वंडलैंड जैसा। कोई देख नही रहा। देखता भी हो तो मेरी बला से। बहुत चाहा था कि हमें भी हॉस्टल भेज दिया जाए। मां-पिताजी ने इनकार कर दिया। हॉस्टल में लड़कियां बिगड़ जाती हैं। जरूरत भी क्या है हॉस्टल में रहने की घर से कॉलेज एक घण्टा ही तो दूर है। और कैसे कह देते कि बिगड़ना ही तो चाहते हैं हम भी। या हिम्मत नही हुई पूछ लें कि बिगड़ना क्या होता है? तीखी प्रतिक्रिया के बाद खुद पर से ही विश्वास डगमगा गया और माता पिता का तो जरूर डगमगाया ही होगा। यह सोच कर कि जाने क्यों अच्छी भली लड़की ऐसा कह रही है। किसने सिखा-पढ़ा दिया। बहुत सालों तक युनिवर्सिटी आते जाते देखती रही इठलाती लड़कियों को जो पीजी विमेंस में आकर ठहरती थीं । वे अपने कपड़े खुद खरीदने जातीं। तमाम प्रलोभन सामने होने पर भी वे परीक्षाओं के दिनों में जम कर पढ़ाई करती थीं। शहर के किसी कोने मे अकेले आना-जाना जानती थीं। इधर हम फूहड़ता ही हद थे। मां के साथ ही हमेशा कपड़े जूते खरीदे । उन्हीं के साथ फिल्में देखीं। कॉलेज हमेशा एल.स्पेशल से गये । कॉलेज भी एल.स्पेशल ही था। कोने मे पड़ा एक ऊंची ठुड्डी वाला कॉलेज जिसमें पढ़कर हमने टॉप किया पर दुनियादारी में सबसे नीचे रह गए। उस वक्त हम यह भी सुना करते थे कि हॉस्टल मेें पढ़ी लड़की की शादी में अड़चन आती है। भावी ससुराल वाले समझते हैं कि जरूर तेज होगी वर्ना इतनी दूर आकर हॉस्टल में ंकैसे रह पाती? शादी के बाद सबको नाच नचा देगी। वह यही चाहते हैं कि लड़कियां दबें,झुकें,मिट जाएं। मै सोचती हूं कि बिगड़ना लड़की के लिए कितना जरूरी है और तेज तर्रार होना भी। आत्मनिर्भरता की जो शिक्षा हॉस्टल में रहते मिल जाती है वह झुकने और मिटने-दबने नही देती। माहौल थोड़ा बदला है शायद घर की घुटन और हॉस्टल की आजादी में अंतर कम हो गया है । पर अब भी बाहर से आयी लड़कियां यहां जिन्दगी के कड़े पाठ सीख रही हैं । उनसी आत्मनिर्भरता हममें अब है यह देख ईर्ष्या होती है। घर से दूर अनजान शहर में अकेले रहना और आना-जाना जो विवेक पैदा करता है वह सीधे कॉलेज और कॉलेज से सीधे घर वाली लड़कियां शायद ही वक्त रहते सीख पाती हैं । दस साल पहले के मुकाबले आज दिल्ली जैसे शहर का वातावरण कहीं अधिक उन्मुक्त है लेकिन इस उन्मुक्ति के आकाश में क्या वह आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान सच में दमक पाया है जिसकी मुझे हरदम उम्मीद है? साथ ही इस स्वतंत्रता में समझ और सोच भी शामिल है इसका मुझे कुछ सन्देह है। जो बन्धी थीं वे अब भी बन्धी हैं। रोज के समाचार उन्हें और डराते हैं। जो सचेत हुई हैं वे अब भी बहुत कम हैं। लड़की न जाने इस वंडरलैंड में कब तक भटकती रहेगी और अपनी पहचान खोज पाएगी।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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