Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
तीसरा अध्याय
कर्म की आवश्यकता
अर्जुन-
हे जगतेश्वर! हे परमेश्वर
कर्मों से अच्छा ज्ञान, अगर
फ़िर मुझे कहें क्यों लड़ने को ?
यह कर्म भयानक करने को ?
यह उलझी बात है उलझाती
मुझ भरमाये को भरमाती
इसलिए कहें बस बात वही
जो हो भगवन मेरे हित की
भगवान-
दो पथ हैं दुनिया में अर्जुन
इक ज्ञान दूसरा कर्म है सुन
कोई भी पथ नर अपनाए
निष्कर्म नहीं पर हो पाए
अपने स्वभाव के हो अधीन
नर रहता हरदम कर्मलीन
कर्मों को त्याग न सकता नर
कर्मों से भाग न सकता नर
जिसका मन भोगों में बहता
पर खुद को है रोके रहता
वह खुद हीं खुद को छलता है
वह पाप के पथ पर चलता है
पर अनासक्त होकर जो नर
अपने मन को अपने वश कर
है राह पकड़ता कर्मों की
उसके समान न कोई भी
इसलिए कर्म तू करता चल
कर्मों के पथ पर चलता चल
पर कर्म नहीं करता जो जन
उसका निर्बल हो जाता तन
निर्बल पाता है दुख-ही-दुख
निर्बल को प्राप्त न होता सुख
निर्बल का जीवन रीता है
निर्बल आँसू पी जीता है
जो नर होते हैं ज्ञानवान
जो नत होते हैं बुद्धिमान
वे कर्म कमाया करते हैं
निज धर्म निभाया करते हैं
पर फ़ल की बात नहीं करते
पर कल की बात नहीं करते
चाहे कर्मों से युक्त रहें
ऐसे नर तो भी मुक्त रहे
तू इनके पथ पर चलता चल
निज धर्म क पालन करता चल
है मुझे न कोई पाबंदी
जग के कर्मों को करने की
फ़िर भी मैं कर्म किया करता
कर्मों के पथ पर हूँ चलता
जो मैं कर्मों से मुँह मोड़ूं
जो कर्मों से नाता तोड़ूं
सब मेरा पथ अपनाएँगे
कर्मों से विमुख हो जाएँगे
कर्मों से विमुख हो कर ये नर
सब दुख भोगेंगे जीवन भर
लोगों को ऐसा मार्ग दिखा
मैं कभी नहीं सुख पा सकता
कर्मों के बन्धन भी उसको
फ़ल की चिन्ता करता है जो
मैं कहता हूँ जो वही कर
कर्मों के बन्धन से मत डर
तू कर्म किए जा निर्भय हो
सब अर्पण करता जा मुझको
फ़ल की चिन्ता को त्याग पार्थ
भ्रम की निद्रा से जाग पार्थ
उठ हो जा लड़ने को तत्पर
उठ हो रण करने को तत्पर
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