Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
चौथा अध्याय
योग-महिमा
भगवान-
हे अर्जुन! दुनिया बीच कहीं
इस योग सा और है योग नहीं
यह योग नहीं मिटने वाला
यह योग है योगों में आला
भारत की पावन धरती पर
सबसे पहले मैंने आकर
यह योग सुनाया सूरज को
यह योग बताया सूरज को
फ़िर सूरज से मनु पे आया
मनु से मनु-बेटे ने पाया
यह योग रहा यों ही चलता
यह योग रहा यों ही फ़लता
पर बहुत समय से यही योग
भूले धरती के सभी लोग
तू परम भक्त मेरा अर्जुन
इसलिए तुझे बतलाता सुन
यह योग दूर दुख करता है
यह योग सभी दुख हरता है
यह योग सुखों की खान समझ
यह योग श्रेष्ठ वरदान समझ
अर्जुन-
सूरज तो हुआ बहुत पहले
जब मैं न था, जब आप न थे
फ़िर हे प्रभो! आपने सूरज से
यह योग कहा कब और कैसे?
भगवान-
लाखों हीं जन्म हुए मेरे
लाखों ही जन्म हुए तेरे
है ज्ञात नहीं कुछ भी तुझको
पर ज्ञात सभी कुछ है मुझको
मैं जन्म नहीं लेता अर्जुन
और कभी नहीं मरता हूँ सुन
मैं सब जीवों से ऊपर हूँ
हे अर्जुन, मैं हीं ईश्वर हूँ
अपने स्वभाव को कर अधीन
खुद को माया में कर विलीन
यों कभी-कभी मैं तन धर कर
अवतरित हुआ करता भू पर
जब धर्म अधर्म से डरता है
जब पाप धरा पर बढ़ता है
तब मैं तन धार लिया करता
तब मैं अवतार लिया करता
पापी लोगों का कर संहार
और साधू लोगों को उबार
मैं भार धरा का हरता हूँ
और धर्म स्थापित करता हूँ
मेरा हर जन्म अलौकिक है
मेरा हर कर्म अलौकिक है
मुझको पहचान लिया जिसने
है मुझको जान लिया जिसने
वह जन्म-मुक्त हो जाता है
फ़िर जन्म नहीं वह पाता है
वह हो जाता है मेरे समान
उसमें मुझमे मत भेद जान
मेरे कुछ ऐसे भक्त रहे
जो मुझ में हीं अनुरक्त रहे
चलते मेरे अनुसार रहे
करते मुझ-सा व्यवहार रहे
फ़ल की चिन्ता से दूर रहे
सुख से हर दम भरपूर रहे
मुझमें हीं आकर व्याप्त हुए
मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए
पर जो नर फ़ल की आशा ले
अपने मन में अभिलाषा ले
शुभ कर्म कमाया करते हैं
निज धर्म निभाया करते हैं
उनको फ़ल उनके कर्मों का
हे पार्थ! शीघ्र ही है मिलता
पर कर्म के बन्धन से उनकी
है कभी नहीं मुक्ति होती
उनका मन भटका रहता है
सुख-दुख में अटका रहता है
वे मुझ तक कभी न आ सकते
वे मुझको कभी न पा सकते
अब जो मुझ को पाए हैं
अब तक जो मुझ तक आए हैं
वे सब करते थे कर्म सभी
पर उन्हें न चिन्ता थी फ़ल की
वे कर्म को कर्म समझते थे
वे कर्म को धर्म समझते थे
वे नर कर्मों से युक्त रहे
फ़िर भी कर्मों से मुक्त रहे
तू चल उन पुरखों के पथ पर
मैं कहता हूँ जो वही कर
जो फ़ल का कभी न ध्यान धरें
निष्काम भाव से कर्म करें
वे लोग हुआ करते योगी
चाहे वे कर्मों के भोगी
जो कर्म किया करते महान
पर कभी नहीं करते गुमान
जो कभी नहीं हैं इठलाते
मेरा प्रताप-बल बतलाते
मैं उनमें ज्ञान जगाता हूँ
उनका अज्ञान मिटाता हूँ
पावक से तूल जले जैसे
सत्ज्ञान से पाप जले वैसे
सबसे ऊपर तू ज्ञान जान
कुछ और नहीं इसके समान
है कर्म कौन सा बुरा-भला
यह ज्ञान हमें सकता बतला
यह मन पवित्र करने वाला
यह तन पवित्र करने वाला
जो नर होता है श्रद्धावान
केवल पाता है वही ज्ञान
ज्ञानी पाता है सुख हीं सुख
ज्ञानी को प्राप्त न होता दुख
विश्वास-रहित होता जो नर
उसमें संशय लेता घर कर
संशय उसको खा जाता है
वह कभी नहीं सुख पाता है
तू ज्ञान-रूप तलवार धार
अपना संशय-अज्ञान मार
उठ हो जा लड़ने को तत्पर
उठ हो रण करने को तत्पर
*** *** ***
|