Re: व्यक्तित्व के शत्रु
व्यक्तित्व के शत्रु
लोभ
आभार: हंसराज सुज्ञ
मोह वश दृव्यादि पर मूर्च्छा, ममत्व एवं तृष्णा अर्थात् असंतोष रूप मन के परिणाम को ‘लोभ’ कहते है. लालच, प्रलोभन, तृष्णा, लालसा, असंयम के साथ ही अनियंत्रित एषणा (अदम्य इच्छायें), अभिलाषा, कामना, इच्छा आदि लोभ के ही स्वरूप है. परिग्रह, संग्रहवृत्ति, अदम्य आकांक्षा, कर्पणता, प्रतिस्पर्धा, प्रमाद आदि लोभ के ही भाव है. धन-दृव्य व भौतिक पदार्थों सहित, कामनाओं की प्रप्ति के लिए असंतुष्ट रहना लोभवृत्ति है। ‘लोभ’ की दुर्भावना से मनुष्य में हमेशा और अधिक पाने की चाहत बनी रहती है।
लोभ वश उनके जीवन के समस्त कार्य, समय, प्रयास, चिंतन, शक्ति और संघर्ष केवल स्वयं के हित साधने में ही लगे रहते है. इस तरह लोभ, स्वार्थ को महाबली बना देता है.
__________________
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
Last edited by rajnish manga; 22-01-2015 at 07:23 AM.
|