Re: इधर-उधर से
किन्तु क्या नारी की कल्पना केवल युग्म के रूप में ही संभव है ? उसकी स्वतंत्र छवि की कल्पना क्यों नहीं ? दम्पति के रूप में, पत्नी के रूप में, बहिन और माँ के रूप में ही क्यों ? केवल एक नारी के रूप में क्यों नहीं ! यह सबसे बड़ा विषय है, जिस पर तर्क की कमी रही है। आज इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता है।
नगरीय व्यवस्था में नारी का यह रूप भी दर्शनीयहै। अब उसे किसीपुरुष की आवश्यकता संरक्षक के रूप में कदापि नहीं रही है।लेकिन ग्रामीण समाज अब भी वहीं है, जहाँ वह सदियों पहले था। सत्तर प्रतिशत ग्रामीण समाज आज भी नारी को यथोचित सम्मान देने से मुकरता है। आज हमें उन नारियों को सम्मान देने की आवश्यकता है, जो ये भी नहीं जानतीं कि पुरुषसे विलग होने पर भी नारीत्व को कोई क्षति नहीं होती है। शिक्षा एवं संस्कृति कुण्ठा को समाप्त करने के उपाय सुझाते हैं न कि उसमें बँधने के। समाज को, परिवार को, सरकार को, हम सबको और सबसे अधिक पुरुषोंयह प्रयास करना होगा कि हम आगे आने वाली पीढ़ी को किस प्रकार की संस्कृति देने को तैयार हैं। क्या हम सचमुच आधुनिक हैं अथवा केवल ढोंग कर रहे हैं ?
दरअसल नारी का दर्जा हमेशा ही सम्मान से युक्त है। इस दुःखद संसार का आस्वाद करने वाला नवजात शिशुभी प्रथम शब्द ‘माँ’ कहकर ही सम्बोधन करता है। माँके आँचल की ओट में एक नन्हा शिशुसंसार के सारे दुःखों को भूलकर अन्य सुखों में रमता है। वस्तुतः यह सारा संसार ही नवजात शिशुके समान है, जिस पर नारी रूपी ममता का आँचल फैला हुआ है। इसके बिना संसार का अस्तित्व ही अकल्पनीय है। अतः यह हम सबका कर्त्तव्य है कि हमें नारी को पुनः उसके उसी पद पर आसीन करवा दें, जिसकी वो अधिकारिणी है। वह समान है, महान् है, क्षमतावान् है, योग्य है। वह सब कुछ है। उससे प्रतियोगिता नहीं, मिलन और सौहार्द्र की आवश्यकता है।
विश्वजीत 'सपन'
(अंतरजाल से)
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