बिष्णु पुराण २
सत्यव्रत की बातें सुनकर मछली समुद्र के बीच पहुँची, एक महा पर्वत की भांति समुद्र की लंबाई तक फैलकर बोली, ‘‘सत्यव्रत, देखा, तुम्हारी वाणी अचूक निकली और अचूक रहेगी। न मालूम मैं यों बढ़ते-बढ़ते क्या से क्या हो जाऊँगी?''
सत्यव्रत ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, और उसकी स्तुति करने लगा, ‘‘मत्स्यावतार वाले हे नारायण ! आप रक्षा की माँग करने आये और मेरी रक्षा करने के लिए आपने मत्स्यावतार लिया। आप मत्स्य के रूप में अवतरित लीलामानुष स्वरूप हैं ! आपकी लीलाओं को समझने की ताक़त मेरे अन्दर कहाँ है?''
इसके जवाब में मत्स्यावतार में रहनेवाले विष्णु ने कहा, ‘‘हे राजन्, सात दिनों के अंदर कल्पांत होनेवाला है। प्रलयकाल के जल में सारी दुनिया डूब जाएगी। लेकिन ज्ञान, औषधियों और बीजों का नाश नहीं होना चाहिए। तुम्हारे वास्ते एक बड़ी नाव गहरे अंधेरे में चिराग की तरह जलती आएगी। उसके अन्दर सप्त ऋषि होंगे ! वह रोशनी उन्हीं लोगों की है !
‘‘तुम अपने साथ औषधियों और बीजों के ढेर को नाव में पहुँचा दो। मेरे सिर पर जो सींग हैं, उस पर नाव को कस कर थामे रहूँगा और उसके डूबने से मैं बचाऊँगा। इसी के वास्ते मैंने इस रूप में अवतार लिया है। इस व़क्त ब्रह्मा निद्रा में निमग्न हैं, उनके जागने तक यह नाव ध्रुव नक्षत्र को दिशा सूचक बनाकर यात्रा करेगी। अगले कल्प में तुम वैवस्वत के नाम से मनु बनोगे।'' सत्यव्रत ने विष्णु की आज्ञा को शिरोधार्य कर नत मस्तक हो उन्हें प्रणाम किया।