Re: टीवी समाचार मीडिया में उत्पात
टीवी ने लगता है अपना मजाक बना दिया है. लोग अपना मनोरंजन करते हैं और क्रिकेट की तरह इन प्रस्तुतियों का लुत्फ उठाते जान पड़ते हैं, वाह क्या शॉट मारा क्या कैच पकड़ा क्या गेंद डाली की तर्ज पर वाह क्या बोला क्या डांटा क्या घेरा क्या बोलती बंद कर दी. इन बहसों का काम था कि समाचार का विश्लेषण करना उसके कई पहलुओं पर गंभीर परिचर्चा कराना लेकिन ये तो उसकी जगह ही लेने पर आमादा हैं. आज आप प्राइम टाइम में विस्तृत गहन शोधपरक रिपोर्टे नहीं देखते, इंवेस्टीगेशन नहीं देखते. आप देखते हैं कि एक “अखंड कीर्तन” सा वहां चल रहा है जिसे वे न जाने किन किन नामों से अलंकृत करते हैं. कम खर्च में ज्यादा इस्तेमाल. खबरें जुटाने में खर्च लगता है तो जुटाना ही रोक दो या जुटाने के लिए जुगाड़ करो-स्ट्रिंगर रखो. फुलटाइम स्किल्ड रिपोर्टर की क्या जरूरत. ऐसे स्ट्रिंगर आपको छोटे बड़े शहरो में मिल जाएंगें जिनका होटल कारोबार है, टैक्सी सर्विस है, बिल्डर, प्रॉपर्टी डीलर हैं यानी दबदबे वाले लोग और पत्रकारिता तो जैसे एक दोयम काम है जो कुछ और करते हुए भी किया जा सकता है. होलटाइमर आप मुनाफे का बनिए.
देश के अधिकांश चैनलों के और भी काम कारोबार हैं. रिटेल और थोक से लेकर रियल इस्टेट और चिट फंड तक. इस तरह की मीडिया ओनरशिप्स और हिस्सेदारियों में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो ऑब्जेक्टिविटी कैसे हासिल होगी जो पत्रकारिता का बुनियादी मूल्य है और पहरेदारी यानी गेटकीपिंग का क्या हश्र होगा जो एक पत्रकार का बुनियादी दायित्व समझा जाता है. आखिर में सवाल ये बचता है जो असल में एक बड़ी चिंता का ही एक्सटेंशन है कि इस किस्म की टीवी पत्रकारिता क्यों. क्या दर्शक हंसी और हैरानी में ही रहेंगे. जब सब कुछ असहनीय हो जाएगा तो वे कैसे रिएक्ट करेंगे. क्या वे मानेंगे कि उनके साथ बहुत धोखा हुआ है.
प्रस्तुति: शिवप्रसाद जोशी / निखिल रंजन
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