View Single Post
Old 09-04-2013, 09:14 PM   #36
rajnish manga
Super Moderator
 
rajnish manga's Avatar
 
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241
rajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond repute
Default Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर



चूरू का ‘पवित्र भोजनालय’

चूरू आने के दूसरे दिन से ही चुरू बाजार में स्थित एकमात्र ढाबे “पवित्र भोजनालय” पर मैंने नियमित रूप से भोजन करना शुरू कर दिया. खाना मेरी कल्पना से कहीं अधिक बढ़िया बनता था. मैं यह बिना अतिशयोक्ति के कह सकता हूँ कि ऐसा खाना मैंने अपने प्रवास - काल में कभी नहीं खाया था. यहाँ आने के बाद जो आरंभिक पत्र मैंने अपने मित्रों व स्नेही सज्जनों - आत्मीयों को प्रेषित किये थे उसमे लगभग हरेक में यहाँ के खाने की श्रेष्ठता एवं विविधता के बारे में खूब मजे से लिखता था. खाना था भी इतनी तारीफ़ के काबिल. पूरा भोजन देसी घी से तैयार किया जाता था. यहाँ देसी घी की अधिकता को देखते हुए यह स्वाभाविक ही था. तवे पर बनायी और चूल्हे की सुलगती लकड़ी की आग में फुलायी गई चपातियां भी घी से चुपड़ी होती थीं. सब्जियां और दालें वगैरह भी प्रतिदिन बदल बदल कर बनायी जाती थीं.

सब्जियों के सम्बन्ध में कुछ मजेदार बाते अवश्य बताना चाहूँगा. एक सब्जी अमचूर (कच्चे आम के सुखाये हुए टुकड़े) और मेथी दाना की बनायी जाती थी जिसमे मीठेपन के लिए गुड़ का इस्तेमाल किया जाता था. यह मेरे लिए बिलकुल नवीन सब्जी थी. स्वादिष्ट भी थी. एक अन्य सब्ज़ी यहाँ पर ख़ास तौर पर बनती थी, वह भी मेरे लिए नयी थी. वह सब्ज़ी मुझे कभी पसंद नहीं आती थी हालांकि जो चीज मुझे उसमे पसंद नहीं आती थी वही उसका विशेष आकर्षण था.

यह सब्ज़ी थी काचरी की, जो इस रेगिस्तानी इलाके में इतनी अधिक होती है कि सीज़न में हरेक टीले पर यही दीखती है. लोगबाग इसको सामान्य रूप से हजम कर जाते. लेकिन मुझे इसके बीज (जो कि सब्ज़ी में से निकाले नहीं जाते थे) पसंद नहीं आते थे और उनको बनी हुयी सब्ज़ी में से अलग करना संभव नहीं था. यह बीज खाने में मुझे ऐसे लगते थे जैसे कोई व्यक्ति खरबूजे के बीज बिना उसका सख्त छिलका उतारे ही चबाने लगे. इस सब्ज़ी को मैंने एक आकर्षक नाम दे दिया था – मिस्टर काचरू. रोज सुबह ही ढाबे में पहुंचाते ही मैं यह पूछा करता था, “क्या आज मिस्टर काचरू बने हैं?”

आम तौर पर यहाँ पर 8 – 10 लोग ही एक समय में खाना खाते थे लेकिन कभी कभी वहां पर इधर उधर से भी लोग खाना खाने आते थे. उस समय यहाँ भीड़ का सा दृश्य उपस्थित हो जाता था. उस समय हम लोग (आम तौर पर शाम के समय) छत पर चले जाते थे. यह ढाबा स्वयं भी पहली मंजिल पर स्थित था. वहां बैठे बैठे बड़ी मजेदार बातें होती थीं. इसमें मुख्य रूप से शायरी और तुकबंदी होती थी जिसका विषय आम तौर पर खाने से जुड़ा होता था. इस प्रकार इंतज़ार का यह समय चुटकियाँ बाते उड़ जाता था.

इन गोष्ठियों में मेरे अलावा जीवन जी सारस्वत (ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे!), मास्टर जी, गर्ग साहब और सुरेश शर्मा जी विशेष रूप से भाग लेते थे और इसको समय काटने का बड़ा मनोरंजक जरिया बना देते थे. इस ढाबे के प्रबंधक शंकर लाल शर्मा बड़े मस्त व्यक्ति थे, मेहनती भी बहुत थे. सुबह का भोजन खिला चुकने के बाद, ग्यारह बजे के बाद अपनी ठेली लगा लेते जिसमे पानी-बताशे, दही-भल्ले आलू की टिकिया आदि बेचा करते थे. शाम तक यही सिलसिला रहता और फिर भोजनालय का कार्यक्रम शुरू हो जाता. मेलों ठेलों में भी वह अपनी खान-पान की दुकान या रेहड़ी लगाना नहीं भूलते थे. शंकर लाल एक काम और करते थे वह था सुबह अखबार सप्लाई करने का. इस प्रकार वह अपनी मेहनत से अपने परिवार की आवश्यकताओं के लिए यथेष्ट कमा लिया करते थे.

एक विशेष घटना मुझे और याद आती है. एक बार इसी भोजनालय में मुझे रद्दी कागजों में पड़ा "Illustrated Weekly Of India" का दिसंबर 1936 का एक अंक मिला (सप्ताह याद नहीं है) जिसमे बिटिश सम्राट एडवर्ड VIII के राजगद्दी छोड़ने का सचित्र समाचार छपा था. यह अंक जर्जर हालत में था और काफी समय तक मेरे पास रहा.

( नोट: सम्राट एडवर्ड अष्टम ने, जो 20 जनवरी 1936 को सिंघासनारुढ़ हुए थे, अपनी इच्छा से सत्ता को ठुकरा दिया क्योंकि वे अपनी अमेरिकन प्रेमिका वालिस वारफील्ड सिम्पसन से शादी करना चाहते थे. सुश्री सिम्पसन दो बार की तलाक प्राप्त महिला थी और एक सामान्य नागरिक थीं अर्थात किसी राजघराने से नहीं थीं. ब्रिटिश सरकार, वहां की जनता और वहां के चर्च ने इसका डट कर विरोध किया. अन्ततः सम्राट ने 11 दिसंबर 1936 को राजगद्दी छोड़ दी. उस दिन के अपने रेडियो सम्बोधन में एडवर्ड ने कहा, “अपनी महती जिम्मेदारियों के भार को उठाना और सम्राट के रूप में अपने कार्यभार का निष्पादन करना, जैसी कि मेरी हार्दिक इच्छा है, मेरे लिए तब तक असंभव है जब तक कि मुझे उस महिला की सहायता और समर्थन प्राप्त न हो जाए जिसे मैं प्यार करता हूँ.)

(28/04/1976 के मेरे विवरण पर आधारित)


Last edited by rajnish manga; 24-11-2013 at 05:06 PM.
rajnish manga is offline   Reply With Quote