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Old 04-02-2015, 06:55 PM   #1
vindhya
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vindhya is on a distinguished road
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तीन लकीरें
हमारी संस्कृति, हमारे रिवाज़, मध्यम वर्गीय परिवार की बड़ी बेटी को उम्र से कुछ पहले ही बड़ा कर देते हैं | सत्रह से अठारह की देहलीज़ पर पड़ते उसके कदम, पिता को चौखट के बाहर खड़े हो, टोह लेने की सूचना देते हैं| सही समय पर उचित वर की आहट पा लेने को आतुर पिता को देखती, बेटी की व्याकुलता बड़ी विचित्र होती है|
कुछ ऐसी ही विचित्रता को मैंने अपनी पंक्तियों में पिरोने का प्रयास किया था, जब उस दौर का स्वयं एहसास किया था | वर को खोजते भटकते अपने पिता को चिंतामुक्त करने की उत्कंठा आज भी याद है मुझे |
लगभग २० वर्ष पूर्व कुछ छुआ था मन को, इस तरह....
तीन लकीरें

पिता, माथे से तुम्हारे ये तीन लकीरें.... कैसे हटाऊँ ?
क्या वक्त रोक दूँ...
मुमकिन नहीं है....
क्या बदल दूँ समाज...
ये रीति, ये रिवाज़ ...
वह कठिन है...
क्या तोड़ दूँ कायदे,
ये नियम ये वायदे ...
हाँ की तुमसे आशा नहीं है...
तो... क्या जहाँ छोड़ दूँ...
पर बेटी तुम्हारी बुजदिल नहीं है|
तुम जो सुझाओ, वही कर जाऊं,
कहो न पिता... माथे से तुम्हारे...
ये तीन लकीरें, कैसे हटाऊँ?


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Last edited by rajnish manga; 04-02-2015 at 08:58 PM.
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