Re: किस्सा तीन बहनों का
किस्सा तीन बहनों का
बहमन ने कहा, मैं वापस जाने के लिए यहाँ तक नहीं आया हूँ। मुझे अपना कार्य पूरा करना ही है चाहे इसमें मेरी जान चली जाए। अपने उद्देश्य में असफल हो कर मैं कायर की तरह जीना नहीं चाहता। अभी तक कोई शत्रु मुझे हरा नहीं सका है। जिसकी मौत आई होगी वही मेरी राह में रोड़ा अटकाने आएगा। तुम केवल इतनी कृपा करो कि मुझे राह बता दो, आगे की पूरी जिम्मेदारी मेरी। तुम मेरे युद्ध कौशल पर विश्वास तो करो।
तपस्वी ने कहा, बेटे, यही तो मुश्किल है कि तुम्हें युद्ध कौशल दिखाने का अवसर नहीं मिलेगा। तुम्हें जो शत्रु मिलेंगे वे सामने से मुकाबला नहीं करते बल्कि छुपे तौर पर वार करते हैं। शहजादे ने कहा, मैं छुपे तौर पर वार करनेवालों से भी निबटना जानता हूँ, आप मुझे वहाँ जानेवाली राह तो बताएँ।
तपस्वी ने उसे बहुत समझाया लेकिन जब यह देखा कि बहमन किसी तरह अपनी जिद छोड़ता ही नहीं और जब तक राह न मालूम कर लेगा हरगिज नहीं टलेगा, तो उसने अपने झोले से एक गेंद निकाली और कहा, मुझे तुम्हारी जवानी पर अफसोस हो रहा है। लेकिन तुमने जिद पकड़ रखी है तो अपना भला-बुरा तुम्हीं जानो। तुम सवार हो कर उधर को जाओ और उस गेंद को भूमि पर गिरा दो। यह गेंद खुद ही लुढ़कने लगेगी और तुम इसी के पीछे-पीछे चले जाना जब तक यह लुढ़कती रहे, तब तक तुम भी चलते रहना। एक पहाड़ के नीचे जा कर यह गेंद रुक जाएगी। वहाँ तुम रुक कर घोड़े से उतर जाना और घोड़े की लगाम उसकी गर्दन पर डाल देना ताकि वह ठहरा रहे।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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