Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
बारहवां बयान
वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह नौगढ़ के किले के बाहर निकल बहुत से आदमियों को साथ लिये चन्द्रप्रभा नदी के किनारे बैठ शोभा देख रहे थे। एक तरफ से चन्द्रप्रभा दूसरी तरफ से करमनाशा नदी बहती हुई आई है और किले के नीचे दोनों का संगम हो गया है। जहाँ कुमार और तेजसिंह बैठे हैं, नदी बहुत चौड़ी है और उस पर साखू का बड़ा भारी जंगल है जिसमें हजारों मोर तथा लंगूर अपनी-अपनी बोलियों और किलकारियों से जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुंवर वीरेन्द्रसिंह उदास बैठे हैं, चन्द्रकान्ता के बिरह में मोरों की आवाज तीर-सी लगती है, लंगूरों की किलकारी वज्र-सी मालूम होती है, शाम की धीमी-धीमी ठंडी हवा लू का काम करती है। चुपचाप बैठे नदी की तरफ देख ऊंची सांस ले रहे हैं।
इतने में एक साधु रामरज से रंगी हुई कफनी पहने, रामनन्दी तिलक लगाये हाथ में खंजरी लिए कुछ दूर नदी के किनारे बैठा यह गाता हुआ दिखाई पड़ा-
‘‘गये चुनार क्रूर बहुरंगी लाये चारचितारी*।
संग में उनके पण्डित देवता, जो हैं सगुन बिचारी।।
इनसे रहना बहुत संभल के रमल चले अति कारी।
क्या बैठे हो तुम बेफिकरे, काम करो कोई भारी।।
यह आवाज कान में पड़ते ही तेजसिंह ने गौर से उस तरफ देखा। वह साधु भी इन्हीं की तरफ मुंह करके गा रहा था। तेजसिंह को अपनी तरफ देखते दांत निकालकर दिखला दिये और उठ के चलता बना।
वीरेन्द्रसिंह अपनी चन्द्रकान्ता के ध्यान में डूबे हैं, उनको इन सब बातों की कोई खबर नहीं। वे नहीं जानते कि कौन गा रहा है या किधर से आवाज आ रही है। एकटक नदी की तरफ देख रहे हैं। तेजसिंह ने बाजू पकड़ कर हिलाया। कुमार चौंक पड़े। तेजसिंह ने धीरे से पूछा, ‘‘कुछ सुना ?’’ कुमार ने कहा, ‘‘क्या ? नहीं तो कहो !’’ ‘‘उठिए अपनी जगह पर चलिए, जो कुछ कहना है वहीं एकान्त में कहेंगे !’’ वीरेन्द्रसिंह सम्हल गये और उठ खड़े हुए। दोनों आदमी धीरे-धीरे किले में आये और अपने कमरे में जाकर बैठे।
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