Re: इधर-उधर से
प्रेममय समर्पण
आभार: कमल किशोर जैन
प्रेम में ऐसा मुकाम मिल पाना हर किसी के नसीब मे कहाँ... जहाँ "मैं" ख़तम हो जाए वहीं से सच्चे इश्क़ की शुरुआत होती है.. इसी समर्पण भाव के चलते "मीरा" को तो उसके "श्याम" मिल गये.. पर हम सब किसी ना किसी दुनियादारी के खेल मे इस कदर फँसे है की अपने कृष्ण को पाना तो दूर... उसे पहचान तक नही पाते है. दरअसल प्रेम का स्वरूप ही इतना उदात्त है कि उसमे व्यक्ति का अहंकार, उसका अहम् सब मिट जाते है. पर उसके लिए जरुरी है की प्रेम में समर्पण का भाव आये. क्यूंकि जब तक हमारे मन में अपने प्रियतम पर अधिकार की भावना रहेगी.. प्रेम में इर्ष्या और जलन का भी स्थान रहेगा.. और ये इर्ष्या और जलन ही एक दिन शक और संदेह को जन्म दे देते है. और जब ये भाव किसी रिश्ते में आ जाये तो उसका ख़तम हो जाना भी सुनिश्चित सा हो जाता है. इसलिए प्रेम में कभी अधिकार का भाव न आये. दूसरा हम सभी इन्सान है ऐसे में हममे इंसानी गुण-दोषों का होना भी लाज़मी है.. इसलिए हमें कभी ये आशा नहीं करनी चाहिए की हमारे प्रिय में सिर्फ खूबियाँ ही हो, खामियां न हो.. साथ ही उसका फिजूल विश्लेषण भी न करें.. बस समर्पित कर दें अपने आप को अपने प्रिय के लिए, अपने प्रेम के लिए.. बिना किसी सोच विचार के... फिर देखिये.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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