Re: डार्क सेंट की पाठशाला
संत की भिक्षा याचना
एक गांव में एक संत रहा करते थे। संत की आदत थी कि वह रोज एक प्रतिमा के सामने खड़े हो जाते थे तथा उस प्रतिमा से ही हाथ जोड़ कर भिक्षा की याचना करते थे। नियमित रूप से उन्हें ऐसा करते कई लोगों ने देखा, पर किसी को उनसे यह पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी कि आखिर रोज-रोज प्रतिमा के आगे खड़े होकर भिक्षा मांगने की उनकी इस हरकत का औचित्य क्या है? एक दिन एक युवा साधु ने हिम्मत जुटाई और आखिरकार उनसे पूछ ही लिया कि गुरुदेव एक जिज्ञासा है। आप प्रत्येक दिन प्रतिमा के आगे हाथ फैलाते हैं और उससे भिक्षा की याचना करते हैं, जबकि आप तो जानते ही होंगें कि पत्थर की प्रतिमा के आगे रोज-रोज इस तरह हाथ पसारने से कुछ भी नहीं मिल सकता। फिर आप व्यर्थ कष्ट क्यों करते हैं? युवा साधु की इस जिज्ञासा पर पहले ते संत कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होने कहा - बालक, तुम्हारी यह जिज्ञासा एकदम उचित है कि मैं रोज रोज ऐसा क्यों करता हूं। मैं यह भली भांति जानता हूं कि यह प्रतिमा मुझे कुछ भी नहीं देने वाली है, फिर भी मैं उससे कुछ मांगता रहता हूं। मैं किसी आशा से इस प्रतिमा से कुछ नहीं मांगता। यह मेरा नित्य का अभ्यास कर्म है। मांगने से कुछ नहीं मिलता, यह सोचकर ही मेरे भीतर एक खास तरह का धैर्य पैदा होता है। इस धैर्य के दम पर ही मैं किसी घर में याचना करूं और मुट्ठी भर अन्न न मिले, तो मेरे मन में किसी भी तरह की निराशा नहीं पैदा होगी। मेरे मन की शांति भंग न हो, इस प्रयास के कारण ही मैं रोज इस प्रतिमा के आगे खड़ा होकर इससे कुछ मांगता हूं। यह सुनकर युवा साधु ने कहा - यह तो अद्भुत बात है। मैं तो सोच भी नहीं सकता था। सच कहूं, तो मुझे और लोगों की तरह आपकी मानसिक दशा पर संदेह होता था। क्षमा करें। वास्तव में आपने मुझे साधना का एक और तरीका बता दिया। मैं भी अब इस तरह से अभ्यास करने का प्रयत्न करूंगा। युवा साधु ने उस संत को प्रणाम किया और वहां से चला गया।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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