Re: इधर-उधर से
हमारे डाकिया बाबू
डाकिया बाबू उस डाक को अपने रूट के हिसाब से व्यवस्थित कर लेते थे ताकि सबसे नज़दीक के मकान में जो चिट्ठी देनी है वह सबसे ऊपर रखी हुई मिल जाये. इसी प्रकार जितनी दूर मकान होता था चिट्ठियों के बंडल में उतनी ही नीचे उसमें वितरित की जाने वाली चिट्ठी रखी जाती थी. हर जगह और लगभग हर पोस्ट ऑफिस में यही नियम अपनाया जाता था, बल्कि आजतक यही व्यवस्था जारी है.
इस बीच, डाक वितरण के लिए बाहर निकलने से पहले तक, डाकिया बाबू काउंटर पर अपने नियत स्थान पर मिल जाते थे. हमारे इलाके के डाकिया बाबू लगभग 40 वर्ष के थे, लम्बे लम्बे बाल और दाड़ी रखते थे. रोज मिलते रहने के कारण वह मुझे पहचानते थे. जैसे ही मैं उनके सामने पहुँचता, वे डाक के बण्डल में से हमारी डाक निकाल कर मुझे पकड़ा दिया करते थे.
मुझे नहीं पता कि वे आज कहाँ पर होंगे और किस हाल में होंगे ? जीवित भी हैं या नहीं ? मुझे उनका नाम तक याद नहीं है लेकिन आज भी उनका चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता है तो उनके प्रति मन श्रद्धा से भर जाता है.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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