Re: सरदर्द का इलाज उर्फ़ भक्त का समर्पण
प्रेम शिष्टाचार के नियम मानता ही नहीं। जहांशिष्टाचार के नियम हैं, वहां कहीं छुपे में गहरा अहंकार है। सब शिष्टाचारके नियम अहंकार के नियम हैं। प्रेम कोई नियम नहीं मानता। प्रेम महानियम है।सब नियम समर्पित हो जाते हैं। प्रेम पर्याप्त है; किसी और नियम की कोईजरूरत नहीं है।
ज्ञानी और भक्त में बड़े फर्क हैं। वे दृष्टियां हीअलग हैं। वे दो अलग संसार हैं। वे देखने के बिलकुल अलग आयाम हैं। जिसको हमज्ञानी कहते हैं, वह रत्ती-रत्ती हिसाब लगाता है। कर्म, कर्मफल, क्याकरूं, क्या न करूं, किसको करने से पाप लगेगा, किसको करने से पुण्य लगेगा।
भक्त तो उन्माद में जीता। वह कहता जो तुम कराते, करेंगे। पाप तो तुम्हारा, पुण्य तो तुम्हारा। भक्त तो सब कुछ परमात्मा के चरणों में रख देता है। वहकहता है अगर तुम्हारी मर्जी पाप कराने की है तो हम प्रसन्नता से पाप हीकरेंगे। भक्त का समर्पण आमूल है। मदहोशी! बेहोशी! परमात्मा के हाथ में अपनाहाथ पूरी तरह दे देना–बेशर्त।
वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया
वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी
धर्म-उपदेशकों ने, तथाकथित ज्ञानियों ने, धर्मगुरुओं ने–सर जोड़कर बदनामकिया–खूब सिर मारा और बदनाम किया, तब कहीं बेहोशी को, मदहोशी को, फूलों केरंग जैसी शराब को वे बदनाम करने में सफल हो पाए; अन्यथा कभी बदनाम न होती।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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