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Dark Saint Alaick
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अब छाया कठपुतली पेश करेगी शेक्सपियर की रचनाएं

तिरूअनंतपुरम। सदियों तक रामायण की कहानियों को जन जन तक पहुंचाने के लिए मंदिर कला के रूप में विख्यात रही छाया कठपुतली कला (शेडो पपेट्री) को अब आधुनिकता का स्वरूप प्रदान करते हुए एक कठपुतली कलाकार इसके जरिए शेक्सपियर की रचनाओं का मंचन करने की योजना बना रहे हैं। यह न केवल छाया कठपुतली कला के साथ प्रयोगधर्मी होने की पहल है, बल्कि इसके जरिए इस कला को आधुनिक समाज की चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम बनाने की भी मंशा है। युवा दर्शकों को इस कला के प्रति आकर्षित करने के मकसद से शेक्सपियर के नाटकों के साथ प्रयोग का बीड़ा उठाने वाले छाया कठपुतली कला के माहिर के. के. रामंचद्र पुलावर का कहना है कि नए प्रयोगों के लिए इस कला की पारंपरिकता या कला की शुद्धता के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा। इस कला में छाया कठपुतली कलाकार महाकाव्यों की जादुई कहानियों की विषय वस्तु को छाया कठपुतलियों के हावभाव के साथ कपड़े के स्क्रीन पर उसकी परछाइयों से पैदा करते हैं। इसमें दर्शकों को कपड़े के स्क्रीन पर कभी युद्ध का दृश्य दिखता है तो कभी राजा महाराजाओं के शानदार महल, लेकिन केरल में ‘थोलपावकुथु’ के नाम से महशूर इस कला पर अब संकट के बादल मंडरा रहे हैं और दर्शकों की घटती संख्या, मनोरंजन के नए साधनों से मिल रही चुनौतियां तथा प्रतिभाशाली छाया कठपुतली कलाकारों के अभाव ने इसके अस्तित्व पर सवाल खड़े कर दिए हैं। किसी जमाने में प्रदेश में मंदिरों में उत्सवों के दौरान छाया कठपुतली कला की धूम मची रहती थी, लेकिन सिनेमा, डांस, कामेडी शो और हास्य कलाकारों की बढ़ती मांग से इस कला पर नाटकीय रूप से खतरे के बादल मंडराने लगे। पुलावर कहते हैं कि नई पीढ़ी में इतिहास तथा इस कला की शानदार विरासत के बारे में जानकारी के अभाव के कारण आज हालात एकदम बदल गए हैं। केरल में ‘पुलावर’ छाया कठपुतली कलाकारों को दी जाने वाली एक उपाधि है। वह बताते हैं कि छाया कठपुतली कला दुनिया में कला का सबसे प्राचीन रूप है। यह कला मानव जाति के इतिहास जितनी ही पुरानी है। इंसानों ने उसी दिन से इस कला का अभ्यास करना शुरू कर दिया था, जिस दिन उन्हें अपने शरीर के लचीलेपन का अहसास हुआ और उसने इशारों में बात करना सीखा। वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखी गयी रामायण की तर्ज पर ही 12वीं सदी में कम्बन द्वारा लिखी गई ‘कम्बनरामायण’ पर आधारित इस कला का प्रदर्शन पारंपरिक रूप से प्रदेश में भद्रकाली मंदिरों में किया जाता था। पुलावर पिछले 45 सालों से केरल और प्रदेश के बाहर भी छाया कठपुतली का प्रदर्शन कर रहे हैं। वह रूस, स्वीडन, आयरलैंड, जर्मनी , यूनान, सिंगापुर, जापान तथा कई अन्य देशों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर चुके हैं। वह कहते हैं कि युवाओं का ध्यान इस कला की ओर आकर्षित करना वास्तव में एक बड़ी चुनौती है। हम बार-बार कैसे रामायण की पुरानी कहानियों को लेकर उनके सामने जा सकते हैं, इसलिए मैंने महात्मा गांधी, जीसस और महाबली के जीवन की कहानियों को आधार बनाकर छाया कठपुतली कला को नया आयाम देने की कोशिश की है। पुलावर कहते हैं कि छाया कठपुतली कला की जड़ें वास्तव में मंदिर कला के रूप में नहीं रही हैं, बल्कि यह घुमंतू कलाकारों की कला थी, जो प्राचीन समय में इस कला के जरिए राजाओं की शान में कसीदे काढ़ते थे।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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