Quote:
Originally Posted by jai_bhardwaj
मंजिल होना कैसी त्रासदी है...कि यहाँ से कहीं और राहें नहीं जाती जहाँ मैं तुम्हारे साथ चल सकूँ.
...गहरे अँधेरे समंदर के बीच कहीं नदियाँ ढूँढूं...पाऊं...गरम पानी की नदियाँ जैसे अन्तः करण का मूक विलाप.
कौन से सफ़र पर निकल जाऊं जिधर रास्ते न हों...
..... तुम्हारे साथ एक रिश्ते की कल्पना करूँ...एक बिंदु से फिर रास्ते बनाऊं...और तुम्हारे संग चल दूँ...किसी तीसरी दुनिया के किसी अनजाने सफ़र पर.
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कुछ कल्पना, कुछ यथार्थ, कभी मंजिलों के होने का खौफ़, कभी रिश्तों और रास्तों को तलाश करने की जद्दोजहद व एक अनजाने सफ़र पर जाने की ख्वाहिश. ठहराव के बिना पात्रों की वर्णित मनःस्थिति कहीं कहीं पाठक को भी विचलित करती है.
मुझे शायर का निम्नलिखित कथन बहुत अपील करता है:
मुसाफिर अपनी मंजिल पर पहुँच कर चैन पाता है
वो मौजें सर पटकती हैं जिन्हें साहिल नहीं मिलता
काश, आलेख से बाहर निकल कर पात्र इस बारे में अपना विचार रख पाते.