26-01-2015, 07:44 PM
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Re: !! मेरी कहानियाँ > रजनीश मंगा !!
हाजी अब्दुल अज़ीज़
खैर माँ - बाप, पत्नी, छोटे भाई सब ने उसकी अच्छी सेवा सुश्रुषा की जिसके परिणामस्वरूप वह जल्द स्वस्थ हो गया. कुछ ही दिन में हवाई जहाज का टिकट बुक हो गया. जाने की तैयारी पूरी हुई.
दो वर्ष का समय कटते देर न लगी. अब्दुल अज़ीज़ के जीवन की एक बड़ी साध पूर्ण होने का योग बन गया. हज की अभिलाषा मन में लिये वह ओमान से सऊदी अरब के लिये रवाना हो गया. हज पूर्ण हुआ. वहाँ से वापिस आते समय उसकी खुशी का कोई ठिकाना न था. अब वो साधारण अब्दुल अज़ीज़ नहीं बल्कि हाजी अब्दुल अज़ीज़ था – हाजी अब्दुल अज़ीज़.
वह प्रसन्न था. पर फिर भी उसे एक बात का अफ़सोस था. अबकी बार उसका वीसा रिन्यू नहीं हुआ था. सोने का अंडा देने वाली मुर्गी उसके हाथ से जैसे निकल गई थी. एक भले आदमी की तरह रहने का अधिकार ही उससे छीन लिया गया था जैसे. हाजी अब्दुल अज़ीज़ को अपने बचपन के वो मुफ़लिसी भरे दिन याद आ जाते तो वह बुरा सा मुंह बना लेता. उसके मन में एक उम्मीद की किरण जरूर कौंध जाती थी कि शायद डाक से उसकी वापसी के कागजात आ जाएं मगर दो माह बीतते न बीतते उसके भीतर जगी यह उम्मीद की किरण भी धूमिल हो कर मिट गई.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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