18-11-2015, 10:21 PM
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Re: इधर-उधर से
श्रीनगर (कश्मीर) की वो शाम
सन 1980 > 1982 के उन दिनों मेरी पोस्टिंग श्रीनगर में थी. एक दिन शाम को ऑफिस से घर जाने के लिए बाहर निकला और स्कूटर स्टार्ट करने लगा तो स्कूटर स्टार्ट नहीं हुआ. रिज़र्व चेक किया, चोक भी ऑन करके देखा, लेकिन स्कूटर स्टार्ट नहीं हुआ. मुझे लगा कि पेट्रोल ही न खत्म हो गया हो. पेट्रोल की टंकी का ढक्कन खोल कर देख तो अँधेरे की वजह से कुछ न दिखाई दिया. मुझे पता नहीं क्या सूझा कि मैंने पास खड़े किसी व्यक्ति से दियासलाई (माचिस) ले कर जलाई और उसकी जलती हुई लौ को स्कूटर की टंकी के मुँह के पास यह जानने के लिए कि पेट्रोल कितना है, ले गया. बस, ऐसा करना था कि टंकी में आग लग गई. जाहिरा तौर पर पेट्रोल कम था इसलिए लपटें भयंकर नहीं थी. लेकिन कुछ भी कहें, आग तो अँधेरे में अच्छी खासी दिख रही थी. आते जाते कुछ लोग वहाँ जमा हो गए. आसपास के दुकानदार भी भाग कर आ गये. कुछ मुझे जानते थे. हम अभी ये सोच ही रहे थे कि क्या करें (क्योंकि पानी डालने से आग और भड़क सकती थी) कि इतने में एक बहुत साधारण लगने वाला एक व्यक्ति वहाँ आया और उसने अपना फिरन (सर्दी से बचने के लिए कश्मीरी लोगों द्वारा पहना जाने वाला लंबा चोगा) उतारा और उससे आग के ऊपर मारने लगा. चार छः बार मारने के बाद आग बुझ गई. मैंने उसे धन्यवाद दिया और अपने एक मुस्लिम मित्र की सहायता से बातचीत करके उसे कुछ पैसे दिए. उसकी बहादुरी और दूरंदेशी से मेरे स्कूटर का अधिक नुक्सान होने से बच गया. मेरी मदद करने वाला वह व्यक्ति भी एक मुसलमान था. मैं आज भी उसका एहसान नहीं भूला हूँ.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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