Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
बदल के रख देंगे ये तसव्वुर के आदमी का वक़ार क्या है
ख़ला में वो चाँद नाचता है ज़माँ मकाँ का हिसार क्या है
बहक गए थे सँभल गए हैं सितम की हद से निकल गए हैं
हम अहल-ए-दिल ये समझ गए हैं कशाकश-ए-रोज़गार क्या है
अभी न पूछो के लाला-जारों से उठ रहा है धुवाँ वो कैसा
मगर ये देखो के फूल बनने का आरजू-मंद ख़ार क्या है
वही बने दुश्*मन-ए-तमन्ना जिन्हें सिखाया था हम ने जीना
अगर ये पूछें तो किस से पूछें के दोस्ती का शेआर क्या है
कभी है शबनम कभी शरारा फ़लक से टूटा तो एक तारा
ग़म-ए-मोहब्बत के राज़-दारों ये गौहर-ए-आबदार क्या है
बहार की तुम नई कली हो अभी अभी झूम कर खिली हो
मगर कभी हम से यूँ ही पूछो के हसरतों का मज़ार क्या है
बईं तबाही दिखाए हम ने वो मोजज़े आशिक़ी के तुम को
बईं अदावत कभी न कहना के आप सा ख़ाक-सार क्या है
बने कोई इल्म ओ फ़न का मालिक के मैं हूँ राह-ए-वफ़ा का सालिक
नहीं है शोहरत की फ़िक्र ‘बाक़िर’ गज़ल का इक राज़-दार क्या है
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