30-10-2010, 06:28 PM
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सिंहासन बत्तीसी 09
एक बार राजा विक्रमादित्य ने होम किया। ब्राह्यण आये, सेठ-साहूकार आये, देश-देश के राजा आये। यज्ञ होने लगा। तभी एक ब्राह्यण मन की बात जान लेता था। उसने आशीर्वाद दिया, "हे राजन्! तू चिरंजीव हो।"
जब मन्त्र पूरे हुए तो राजा ने कहा, "हे ब्राह्यण! तुमने बिना दण्डवत् के आशीर्वाद दिया, यह अच्छा नहीं किया-
जब लग पांव ने लागे कोई।
शाप समान वह आशिष होई॥"
ब्राह्यण ने कहा, "राजन् तुमने मन-ही-मन दण्डवत् की, तब मैंने आशीष दी।"
यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने बहुत-सा धन ब्राह्यण को दिया। ब्राह्यण बोला, "इतना तो दीजिये, जिससे मेरा काम चले।"
इस पर राजा ने उसे और अधिक धन दिया। यज्ञ में और जो लोग आये थे। उन्हें भी खुले हाथ दान दिया।
इतना कहकर पुतली बोली, "राजन्! तुम सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं। शेर की बराबरी सियार नहीं कर सकता, हंस के बराबर कौवा नहीं हो सकता, बंदर के गले में मोतियों की माला नहीं सोहती। तुम सिंहासन पर बैठने का विचार छोड़ दो।"
पर राजा भोज नहीं माना। अगले दिन फिर सिहांसन की ओर बढ़ा तो दसवीं पुतली प्रेमवती ने उसके रास्ते मे बाधा डाल दी। बोली, "पहले मेरी बात सुनो।"
राजा ने बिगड़कर कहा, "अच्छा, सुनाओ।"
पुतली बोली, "लो सुनों।"
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