06-04-2013, 08:08 PM
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#30
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Re: इधर-उधर से
जहाँ चित्त भय से विमुक्त हो
जहाँ चित्त भय से विमुक्त हो
और जहाँ शिर ऊँचा;
ज्ञान न हो जकड़ा बंधन में;
जहाँ घरों की दीवारें
बना रात-दिन अपने प्रांगण
करें विभाजित नहीं धरा को
खंड खंड में;
जहाँ शब्द आते हों उठकर
अंतरतम की गहराई से;
जहाँ कर्म – धारा अजस्र, अक्लांत प्रवाहित
देश देश में, दिशा दिशा में
प्राप्त पूर्णता को करने को;
जहाँ न होता पथ विवेक का
लुप्त रूढ़ियों के मरु-थल में;
जहाँ रहे पुरुषार्थ निरंतर
प्रकटित नाना-विध रूपों में;
जहाँ चित्त को, परम पिता,
तुम ले जाते हो
मुक्त विचारों और कर्म में,
जगे प्रभो, यह देश हमारा
स्वतंत्रता की स्वर्ग-भूमि में.
(अनुवाद: यशपाल जैन)
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