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Originally Posted by dr. Rakesh srivastava
धूप सब पी के सँवर जाओ चाँदनी की तरह ;
उम्र बढ़ जायेगी , लम्हे जियो सदियों की तरह .
वक्त ज्यादा नहीं है नाप लो ऊँचाई को ;
फूट जाओगे किसी रोज बुलबुले की तरह .
हार मत मानो , पत्थरों से जूझते ही रहो ;
छाप उनपे भी पड़ेगी कभी रस्सी की तरह .
अपनी धुन में अकेले ही बढ़ो मंजिल की तरफ ;
कोई रोके अगर बन जाओ काफ़िले की तरह .
साथ कीचड़ का मिले तब भी कमल बन के रहो ;
अँधेरे चीर के बढ़ जाओ रौशनी की तरह .
बीन लो मोती समन्दर की तलहटी तक से ;
इल्म पाना है तो जुट जाओ तिश्नगी की तरह .
तुझ से जर्रे को कोई आँधी आसमाँ देगी ;
काम जब जो करो , बस करो इबादत की तरह .
फूल खिलते हैं तो मुरझाना ही पड़ता है उन्हें ;
मौत से पहले बिखर जाओ तुम ख़ुश्बू की तरह .
रचयिता ~~~डॉ. राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - २ , गोमती नगर , लखनऊ .
शब्दार्थ ~~(इल्म =ज्ञान , तिश्नगी = प्यास , ज़र्रे = अति सूक्ष्म कण )
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राकेश जी
बहुत खूबसूरत रचना है आपकी तहेदिल से शुक्रिया .... ये था इस संडे का कॉकटेल |