13-06-2015, 10:32 PM
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#30
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Re: कुछ ओर!
Quote:
Originally Posted by deep_
गज़ल
......
दर्द-ओ-ग़म, ग़म-ए-शाम और शाम-ए-तनहाई,
सीने से जब लगाए, तो गज़ल बन गई!
(दीप ९.६.१५)
'गज़ल' बस ऍसे ही बन गई है, शायद आपको पीछलीरचनाओं के मुकाबले थोडी फिकी लगे। शब्दों की त्रुटियां तो खैर रजनीश जी सुधरवा हीदेंगे, बाकी टीका-टिप्पणी आवकार्य है!
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बहुत सुंदर, दीप जी. आदि से अंत तक पूरी ग़ज़ल पर आपकी छाप है, प्रशंसनीय रचना और कमाल की अभिव्यक्ति. हाँ, आपकी इजाज़त से अंतिम शे'र यदि मैं लिखता तो उसकी शक्ल ऐसे होती:
शाम-ए-ग़म सरल थी न आसाँ शब-ए-फ़िराक़
दोनों से ज़ख्म खाये, तो ग़ज़ल बन गई !!
(शब-ए-फ़िराक = विरह की रात)
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
Last edited by rajnish manga; 14-06-2015 at 09:43 AM.
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