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Originally Posted by rajnish manga
ग़ज़ल / ghazal
आज अपने ही खटकने लग गए
रिश्ते नाज़ुक थे चटकने लग गए
रास्तों की मुश्किलें हल हो गईं
आके मंज़िल पर भटकने लग गए
क्या कभी पहले भी ऐसा था हुआ
बात करते ही अटकने लग गए
बेदखल जिनको शहर से कर दिया
फिर से गलियों में फटकने लग गए
जैसे जैसे हिज्र के दिन बढ़ गए
ज़ीस्त के दिन हाए घटने लग गए
(हिज्र = वियोग / ज़ीस्त = जीवन)
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रिश्तों के विषय में बहुत गहन बात कही है आपने इस कविता के माध्यम से भाई
इतने बरसों से आप इतने गहन अर्थ वाली कवितायें लिख रहे हो भाई हमें इतनी भावनात्मक कवितायें पढ़ने से क्यूँ वंचित रखा? आपकी हर कविता गागर में सागर की भांति हैं भाई..
हार्दिक आभार सह बहुत बहुत धन्यवाद हमसे शेयर करने के लिए भाई