30-10-2010, 08:35 PM
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सिंहासन बत्तीसी 19
एक ब्राह्मण हाथ-पैर की लकीरों को अच्छी तरह जानता था। एक दिन उसने रास्ते में एक पैर के निशान देखे, जिसमें ऊपर को जानेवाली एक लकीर थी और कमल था। ब्राह्मण ने सोचा कि हो न हो, कोई राजा नंगे पैर इधर से गया है। यह सोचकर वह उन निशानों को देखता हुआ उधर चल दिया। कोसभर गया होगा कि उसे एक आदमी पेड़ से लकड़ियां तोड़कर गट्ठर में बांधते हुए दिखाई दिया। उसने पास जाकर पूछा, "तुम यहां कबसे हो? इधर कोई आया है क्या?"
उस आदमी ने जवाब दिया, "मैं तो दो घड़ी रात से यहां हूं। आदमी तो दूर, मुझे छोड़कर कोई परिन्दा भी नहीं आया।" इस पर ब्राह्मण ने उसका पैर देखा। रेखा और कमल दोनों मौजूद थे।
ब्राह्मण बड़े सोच में पड़ गया कि आखिर मामला क्या है? सब लक्षण राजा के होते हुए भी इसकी यह हालत है! ब्राह्मण ने पूछा, "तुम कहां रहते हो और लकड़ी काटने का काम कबसे करते हो?" उसने बताया, "मै! राजा विक्रमादित्य के नगर में रहता हूं और जबसे होश संभाला है, तब से यही काम करता हूं।" ब्राह्मण ने फिर पूछा, "क्यों, तुमने बहुत दु:ख पाया है?" उसने कहा, "भगवान् की इच्छा है कि किसी को हाथी पर चढ़ाये, किसी को पैदल फिराये। किसी को धन-दौलत बिना मांगे मिले, किसी को मांगने पर टुकड़ा भी न मिले। जो करम में लिखा है, वह भुगतान ही पड़ता है।"
यह सब सुनकर ब्राह्मण सोचने लगा कि मैंने इतनी मेहनत करके विद्या पढ़ी, सो झूठी निकली। अब राजा विक्रमादित्य के पास जाकर उसे निशान भी देखूं। न मिले तो पोथियों को जला दूंगा।
इतना सोच वह विक्रमादित्य के पास पहुंचा। राजा के पैर देखे तो उनमें कोई निशान न था। यह देखकर वह और भी दुखी हुआ और उसने तय किया कि घर जाकर किताबें जला देगा। उसे उदास देखकर राजा ने पूछा, "क्या बात है?"
ब्राह्मण ने सब बातें दीं। बोला, "जिसके पैर में राजा के निशान है, वह जंगल में लकड़ी काटता है। जिसके निशान नहीं है, वह राज करता है।"
राजा बोला, "महाराज! किसी के लक्षण गुप्त होते हैं, किसी के दिखाई देते है।"
ब्राह्मण ने कहा, "मैं कैसे जानूं?"
राजा ने छुरी मंगाकर तलुवे की खाल चीरकर लक्षण दिखा दिये। बोला, "हे ब्राह्मण! ऐसी विद्या किस काम की, जिसे सब भेद न मालूम हों!"
यह सुनकर ब्राह्मण लज्जित होकर चला गया।
पुतली बोली, "जो इतना साहस कर सता हो, वह सिंहासन पर बैठे। नाम, धर्म और यश आदमी के जाने से नहीं जाना जाता—जैसे फूल नहीं रहता, पर उसकी सुगंधि इत्र में रह जाती है।"
सुनकर राजा को चेत हुआ। कहने लगा, "यह दुनिया स्थिर नहीं है। पेड़ की छांह जैसी उसी गति है। जिस तरह चांद-सूरज आते-जाते रहते हैं, वैसे ही आदमी का जीना=मरना है। देह दु:ख देती है। सुख हरि-भजन में है।"
राजा ने यह सब सोचा, लेकिन जैसे ही अगला दिन आया कि सिंहासन पर बैठने की फिर इच्छा हुई। वह उधर गया कि बीसवीं पुतली चन्द्रज्योति ने उसे रोक दिया। बोला, "पहले मेरी बात सुनो।"
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