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Old 05-02-2012, 09:04 PM   #3
Dr. Rakesh Srivastava
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

( 1 )

निरंकुश हवा उदण्ड तूफ़ान में परिवर्तित होने की धमकी दे रही थी और भटकती मनहूस दुष्टात्मा की भांति अजीब डरावनी आवाजें बिखेरती हुई अंगद के पाँव से मज़बूत विशाल वृक्षों से सर टकरा रही थी----जैसे युगों - युगों से अटल विश्वास को उखाड़ फेंकना चाहती हो . सनसनाते नम ठण्डे झोंके ----शरीर में शूल की भांति चुभकर ----गर्म खून को जमा देने की जिद पकड़े थे . नीले मखमली आकाश में पैबंद से टंके जल से बोझल बादल के टुकड़े ----नीचे----बहुत नीचे तक झुककर पेड़ों के झुरमुट में कुछ खोज सा रहे थे . संभवतः दूर बाहें पसारे बूढ़े गरीब पीपल की अधनंगी टहनियों में अटके - उलझे चाँद को ढूँढ रहे थे . ऊंची चढ़ाई पर लाज से सिकुड़ी सर्पिल सड़क किसी रूपसी की पतली कमर की भांति बलखाती - लहराती हुई दूर ----बहुत दूर ----ऊँचाई तक अविराम चली जा रही थी . जैसे ऊंचे आकाश को छू लेना चाहती हो .मूर्ख सड़क नहीं जानती थी कि भला हरि - कथा – से अनन्त आकाश को कभी कोई छू सका है !
सामान्य जनों के लिए खराब और नवविवाहितों के लिए बेहद हसीन व दिल को शरारती बनाने वाले इस मौसम में - - - इसी पतली सी सड़क पर एक खूबसूरत कार भागी चली जा रही थी - - - उस विलंबित कमसिन लड़की की तरह , जिसका प्रेमी दूर खड़ा देर से उसे सम्मोहक आमंत्रण दे रहा हो .
नवयौवना - सी निखरी कार पर सवार चंचल के सावधान पाँव एक्सेलरेटर पर दबाव बढ़ाते जा रहे थे . वह पगलाए मौसम के कुछ कर गुजरने से पूर्व सकुशल घर पहुँच जाने की उतावली में था .
अचानक उसकी सांस रुकी , धड़कन बढ़ी और जबड़े भिंच गए . उसने संयमित घबराहट में ब्रेक पर पूरी ताकत के साथ अपने जीवन का सम्पूर्ण ड्राइविंग - कौशल पल भर में उड़ेल दिया . कार एक तेज चीत्कार करके जहाँ की तहाँ चिपक गयी .
पुराने सयानों ने सच ही कहा है कि गाड़ी भली - भाँति चला लेना ही कला नहीं है . कला है - - - सामने से सुरसा - सा मुँह बाए चली आ रही विपत्ति को ठेंगा दिखाकर कुशलता पूर्वक अपना बचाव करना और दुर्घटना को टाल देना .
बहरहाल - - - सब कुछ पलक झपकते हो गया . ये पल , वो पल था - - - जिस पल सावधान न रहे - - - चूके तो टिड्डियों के विध्वंसक दल - सा ये पल - - - पल भर में जीवन की पूरी फसल ही चट कर जाता है . या फिर अपशगुनी काली बिल्ली का रूप धरे उम्र भर रास्ता काटा करता है . या तो उल्लुओं - सी मनहूस शक्ल लिए ये पल जबरदस्ती कन्धों पर सवार होकर जीवन भर भयानक कहकहे लगाकर घटना विशेष की कडुवी स्मृतियों को मन - मस्तिष्क से मिटने नहीं देता और उस भारी पल के अनचाहे बोझ को ढोते रहना व्यक्ति की नियति बन जाती है .
खैर - - - उस पल पर सकुशल पार पाते ही - - - इस ठण्ढे मौसम में भी चंचल के माथे पर स्वेद - कण चुचुआ आये और सम्पूर्ण शरीर के रोयें खतरे में फंसी जंगली साही के काँटों की भाँति तनकर खड़े हो गये , क्योंकि नियंत्रित कार के आगे दन्न से कूदकर किसी लड़की ने अपनी जिंदगी के दस्तावेज को बंद करने की कोशिश की थी . एक नाकामयाब कोशिश . आत्महत्या का असफल प्रयास .
संभवतः उस खास लड़की की सोच भी ऐसी आम रही होगी कि उसका चाहा हुआ ही घटित होगा . किन्तु क्या सदैव ऐसा हुआ है ! प्रायः तो नहीं . कोई अपने ही अतीत में झांके - - - तो पायेगा कि उसके जीवन में वह काल - खण्ड भी मुस्कराया है , जब उसने मिट्टी को भी हाथ लगाया तो सोना होता चला गया . चाहे - अनचाहे उपलब्धियों की झड़ी लग गयी . और वक्त का दौर ऐसा भी भारी पड़ा , जब सर्वोत्तम प्रयासों के पश्चात भी अधकचरे या फिर प्रतिकूल परिणाम प्रकट भये . और कभी - कभी तो जीवन में वह सब स्वतः घटित होता चला जाता है , जिसके विषय में कभी सोचा ही न गया हो . कोई तैयारी , कोई योजना ही न रही हो . योजनाबद्ध प्रयास के फलीभूत होने - - - न होने - - - कम या अधिक होने के लिए सूत्रधार तो कोई और ही है . शायद ईश्वर - - - या फिर भाग्य . जो कह लो .
तन - मन पर यथासंभव नियंत्रण आते ही , झट से कार खोलकर चंचल पट से बाहर निकला और ढोल की तरह बज रही दिल की थापों के बीच उसने बेसब्र निगाहों से धराशायी लड़की को भरपूर निहारा . यह देख जानकर कि लड़की लगभग सही सलामत है , उसने वैसे ही भरपूर चैन की सांस ली , जैसी कि कोई मुल्जिम अदालत से बा इज्जत बरी होने पर लेता है .
कार के आगे पड़ी मरने की असफल आकांक्षा रखने वाली लड़की उसकी तरफ ऐसी बेबस नजरों से निहार रही थी जिसमे जिन्दगी और मौत - - - दोनों के ही हाथों से फिसल जाने का दोहरा दर्द छलछला रहा था , उसकी डबडबायी आँखें और फड़फड़ाते होंठ मानो शिकायत कर रहे थे कि क्यों बचा लिया मुझे ! मुझे बचाकर ज़ुल्म किया तुमने .
चंचल ने उसकी केले के छिले ताने - सी स्निग्ध बांह को सहारा देकर उसे खड़ा कर दिया . देखा - - - कि सामान्य सांसारिक पुरुषों की भाँति ईश्वर ने भी उस आकर्षक युवती के प्रति ज़रुरत से कुछ ज्यादा ही नरमी बरती थी . क्योंकि चोट अधिक नहीं आई थी . कूदकर गिरने से कुछ खरोंचें भर आयीं थीं उसकी कमनीय काया पर .
" ए लड़की ! क्यों जान देना चाहती थी ? " चंचल स्वाभाविक क्रोध वश पूछ कर बड़बड़ाया -- " किस्मत थी , जो बच गयी - - - वर्ना तुम्हारी मौत का अनचाहा बोझ मुझ बेगुनाह को भी बेवजह जिन्दगी भर ढोना पड़ता . "
" मुझे मर जाने देते . मरने क्यों न दिया ! क्यों बचाया आपने ? " एक सांस में कहकर लड़की किसी असहाय बच्चे की भाँति सुबक - हिचक कर रोने लगी . उसकी आँखों से अनवरत उमड़ती गंगा - जमुना ने सैलाब का रूप ले लिया .
चंचल उसमे बिना बहे झुंझलाया -- " तुम्हे मर जाने देता और खुद जेल की चक्की पीसकर अपनी ज़िन्दगी को घुन लगा लेता ? आखिर मरना क्यों चाहती थी ? "
" क्योंकि मै जीना नहीं चाहती ."
"वो तो समझा - - - लेकिन भाग्य का लिखा तो कोई मिटा नहीं सकता . चॉक और डस्टर तो विधाता के हाथ है और शायद वो नहीं चाहता कि तुम अभी मरो . इसलिए तुम दैवयोग से बच गयी .
" मगर मै जीना नहीं चाहती . अब तक की ज़िन्दगी को प्याज की परतों की तरह खूब उधेड़ कर परखा - - - मगर सिवाय बदबू के कुछ हाथ नहीं आया . अब तो मेरे सारे सपने ही मर चुके हैं . जीने की चाहत ही ख़त्म हो गयी है . क्योंकि ये घिनौनी बदबूदार ज़िन्दगी मुझे चैन से जीने नहीं देती . पग - पग , पल - छिन दगा देती है . "वह रोते - रोते बोली और उसके दम तोड़ चुके सपने मानो सड़ - पिघल कर कतरा - कतरा उसकी आँखों से बहते रहे
अब लड़की के प्रति चंचल के मन - आँगन में दया उमड़ आयी . वैसे ये तो होना ही था . नारी के आंसुओं का गुनगुनापन तो पत्थर को भी पिघला कर मोम बना देता है . चंचल तो मात्र हाड़ - मांस का धड़कता भावुक पुतला था .
उसने अपनी उम्र से बड़ा होकर शिक्षकों की तरह समझाया -- " सुनो - - - सपनों के मर जाने से अधिक खतरनाक स्थिति और कुछ भी नहीं . सबसे अधिक विपन्न वो होते हैं , जिनके पास सपनों का अभाव है . सपने थमे तो विकास थमा . सपना ही तो मनुष्य और जानवर के बीच भेद करने वाली रेखा है . व्यवहारिक सपने ही तो तरक्की का राज हैं . इसीलिये , मेरी मानो तो सपनों को कभी मरने मत दो . और देखो- - - ज़िन्दगी अगर सरासर बेवफाई पर ही उतर आये तो इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम मौत से याराना गाँठ लो . तुम्हें मौत से लड़ना चाहिए . किसी उम्मीद के छोटे से कतरे को जीने का सहारा बना लेना चाहिए . और फिर - - - अगर मरना ही है तो हथियार डाल कर क्यों मरो ! लड़ते - जूझते , कुछ कर गुजर कर क्यों न मरो -- बहादुरों - सी यादगार मौत . खैर - - - अब मै तुम्हे मरने तो नहीं ही दूंगा . "
" देखिये - - - मुझ पर रहम समझ कर अन्जाने में ज़ुल्म न कीजिये . जिसने मरने की ही ठान ली , उसे भला कोई कब तक बचा सकता है ! मै हर हाल में मरना चाहती हूँ . कृपया अपनी कार तले रौंद कर मुझे इस ज़िन्दगी के नर्क से आजाद करने का उपकार कर दीजिये . इस सन्नाटे सुनसान में कोई भी यह दृश्य देख नहीं पायेगा . जमाने की निगाहों में आपके उजले दामन पर कोई दाग भी न आएगा और मुझे भी इस तिल - तिल मरती ज़िन्दगी के कष्ट से एकबारगी छुटकारा मिल जाएगा . "
" क्या खूब दर्शन समझा रही हो मुझे ! इस सुनसान में तुम्हारी निराशा - जनित इच्छा पूरी कर दूं तो जमाने की निगाहों से तो बचा रहूँगा , मगर खुद से खुद को कहाँ छिपाता फिरूंगा ! एक अपराध - बोध उम्र भर मेरा पीछा करता रहेगा . क्योंकि आदमी दुनिया से तो नज़र बचाकर भाग सकता है लेकिन स्वयं से भाग कर कहाँ जा सकता है ! अतीत के अंधेरों में जान - समझ कर किये गए गुपचुप पाप उम्र भर प्रज्ञापराधी का निरंतर पीछा करके उसे इस कदर झिंझोड़ा करते हैं कि इनको ढकने - छिपाने में अपनी समस्त ऊर्जा खपाता व्यक्ति वर्तमान को कभी ठीक से जी ही नहीं पाता . " चंचल उम्र से अधिक लम्बे बुरे तजुर्बे झेल चुकी लगती अभागी को समझाता रहा . फिर बोला -- " लगता है , लाचार हो - - - बेबस हो ! "
" हाँ - - - क्योंकि औरत हूँ . " वह रोते - रोते बोली .
" मगर मानो तो - - - अब तो तुम्हें एक नई ज़िन्दगी मिली है - - - अब क्यों रोती हो ? "
" रोना तो सृजन के साथ ही हर स्त्री का भाग्य है - - - और रोते - रोते अब तो जीवन में मेरी रूचि ही समाप्त हो चली है . "
"किन्तु हाथ पर हाथ धरे भाग्य को कोस - कोस कर अकारथ आंसू बहाते रहने से तो ज़िन्दगी पार न होगी . हाँ - - - एक बात यदि खूब ध्यान से समझ लो तो तुम्हारे आँसुओं का शायद कोई उपाय निकल आये . देखो - - - ज़िन्दगी योजनाबद्ध तरीके से गढ़ी मिली तीन घंटे की कोई रोचक रंगीन फिल्म नहीं . ये तो बिना आवेदन ही सुखद संयोग से हाथ लगा कोरा स्केच मात्र है . जिसमें परिस्थितियों से तालमेल बैठाते हुए बड़े जतन से खुद ही रंग भरते - बदलते रहना पड़ता है . इसके बावजूद - - - यदि किसी की शरारत या वातावरण की मार अगर मन पसन्द चटक रंगों को बदरंग भी कर दे तो उसे पुनः - सजाते - संवारते रहना पड़ता है . अनमोल ज़िन्दगी को निरंतर खूबसूरत बनाए रखने के लिए अनवरत कठोर प्रयासों की आवश्यकता पड़ती है . सारी बातों का सार - संक्षेप ये है कि ज़िन्दगी को बड़े जतन से खुद ही बुनना पड़ता है . जो मन - मेहनत नहीं लगाते , उन्हें सादी काम चलाऊ कंबली से ही सन्तोष करना पड़ता है . इसके विपरीत जो लोग एकाग्रता से बारम्बार सवोत्तम प्रयास करते हैं , वो अपनी ज़िन्दगी को खूबसूरत ईरानी कालीन सा बुन डालते हैं . इसलिए जब मनोदशा सामान्य हो जाए तो फुर्सत में मेरी बातों के अर्थ तलाशने की कोशिश करना . शायद काफी कुछ हाथ लग जाए . अभी तो चलो - - - आस पास के किसी दवाखाने में तुम्हारी मरहम - पट्टी करवा दूं . " अचानक कुछ सोचने के बाद चंचल ने मुस्कराते हुए उससे पूछा -- " लेकिन क्या मेरे साथ - - - एक अन्जान अकेले पुरुष के साथ - - - कार में बैठने में तुम्हे स्त्री सुलभ डर नहीं लगेगा ? "
चंचल के व्यंग को समझ कर - - - आंसू पोंछकर - - - उसने जवाब दिया -- " जिसे मौत को गले लगाने में भय नहीं लगा - - - वो भला एक आदमी से क्योंकर डरेगी ! और वो भी उस व्यक्ति से - - - जो उसका जीवन - रक्षक हो . वैसे भी मेरा जीवन जिस अवस्था पर आ पहुंचा है , वहां भय अथवा साहस , ख़ुशी या फिर गम - - - इन सबकी अनुभूतियाँ - - - इन सबके भेद इस समय समाप्त हो चले हैं ."
सच ही तो है - - - भय साहस , ख़ुशी गम - - - ये समस्त भाव व्यक्ति की मनोदशा और काल विशेष पर आश्रित हैं . कभी - कभी व्यक्ति विशेष की मनोदशा प्रयास वश या फिर परिस्थितियों वश स्थायी अथवा अस्थायी रूप में उस अवस्था को छू लेती है - - - जहाँ ख़ुशी या गम , भय या साहस - - - इन सबमें भेद करने की , इन्हें अनुभव करने की प्रवृत्ति शून्य हो जाती है . सभी कुछ समान और तटस्थ रूप से ग्राह्य हो जाता है .
लड़की कार में , ड्राइवइंग - सीट के बगल में बैठ गई . चंचल भी निर्धारित जगह पर पसर कर कार चलाने लगा . उसने कार यथासंभव अधिकतम गति पर झोंक दी . यह सोचकर कि लड़का यदि कार तेज चलाये , तो बगल विराजी लड़की या तो डरकर सहम जाती है - - - या फिर लड़के के ड्राइवइंग - कौशल पर मुग्ध हो जाती है - - - और प्रभाव तो दोनों ही स्थितियों में पड़ता है . वैसे भी लड़कियों पर प्रभाव गांठने का कोई भी अवसर हाथ से न फिसलने देना , लड़कों के जन्मजात स्वभाव में शामिल होता है .
चलती कार में चुप्पी ठहरी थी . मानो दोनों जन लखनवी अन्दाज ओढ़े पहले आप - पहले आप की उम्मीद में मौन साधे हुए थे . अचानक लड़की चंचल की दबी नज़रों के स्पर्श की सुरसुरी से सिकुड़ कर छुई मुई हो गई . शायद भगवान औरतों को एक छठी इन्द्रिय भी देता है - - - और इतनी संवेदनशील देता है कि आँखों की तो जाने दो , उनका शरीर भी पुरुषों के मनोभावों तक को बहुत सहजता से पकड़ लेता है . वह भी चंचल की निगाहों के शालीन स्पर्श की गुदगुदी अपने सम्पूर्ण शरीर में क्रमशः अनुभव कर रही थी . सचमुच - - - चंचल बीच - बीच में मौका तलाश कर कनखियों से लड़की की तरफ निहार कर पुरुष - स्वभाव का परिचय दे रहा था . उसकी चोर नज़र लड़की के रेशमी चेहरे से फिसलती हुई - - - यौवन के ढलान से अटकते - लुढ़कते उसके गोरे नाज़ुक चरण कमलों तक जा पहुंची . कुल मिलाकर उसने अपनी चोर नज़रों की पद - पट्टिकाओं पर चंचल मन को सवार कराकर लड़की के बर्फ - से चिकने बदन पर दूर - दूर चहुँओर जी भरकर मजेदार स्कीइंग करा डाली और बेमन से रुका तभी , जब आत्मा के ब्रेक ने उसे मजबूर कर दिया . इस बहाने पहली बार उसकी अनुभव हीन उत्सुक आँखों ने अपने इस विशिष्ट अन्दाज़ से लड़की के शरीर के चप्पे - चप्पे का स्वाद जी भरकर चखा - छका और उसके सम्पूर्ण सौन्दर्य को अपने भीतर तक अनुभव किया . अपने इस सुखद निरीक्षण के बीच उसने पाया कि लड़की की जुल्फ जन्नत की गलियों जैसी थीं . उसके दांत मोतियों और कान सीपियों जैसे थे . उसके होठ किसी खूबसूरत ग़ज़ल की दो पंक्तियों जैसे थे . शरीर गदराये यौवन के बोझ से झुका - झुका और रंग - - - हाय - - - मत पूछो - - - ऐसा लगता था , जैसे दूध से भरे कांच के बर्तन में चुटकी भर गुलाल गिर गया हो . काली साड़ी उसके गोरे बदन से इस तरह लिपटी थी , जैसे चमकते चाँद से बदली . पतली कमर उन्नत उरोजों का भार वहन करते - करते लचकी पड़ रही थी . आँखों की मदिरा छलकी पड़ रही थी . ऐसा मनभावन था उसका रूप . लगता था , जीवन्त हो उठी खजुराहो की कोई मूरत चल - भटक कर उसके बगल में आ बैठी हो , जिसके शरीर से महुआ की मादक महक आ रही थी . चंचल की तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि मात्र एक शरीर के अन्दर इतना सौन्दर्य समा कैसे गया ! प्रभु की लीला , प्रभु ही जाने .
उसने मौन तोड़ा -- " नाम क्या है तुम्हारा ? "
" पायल . " छोटा सा उत्तर दिया उसने - - - और उसकी वाणी कार में ऐसे छनकी , जैसे खेत में पकी खड़ी अरहर की फलियाँ पुरवा का झोंका पाकर पायल - सी बज उठी हों .
" देखो पायल - - - तुम मुझे अपना हितैषी समझो और सच - सच बताओ - - - तुम कौन हो और किन कारणों वश ज़िन्दगी की अनमोल धुन पर संगत बिठाने में असफल होकर ज़िन्दगी को ही ख़त्म करने पर तुली थी . " चंचल ने प्रश्न के साथ - साथ मुस्करा कर मीठा सा मजाक भी किया -- " कहीं किसी लड़के ने प्यार में बेवफाई तो नहीं की ? वैसे मै तो यही सुनता आया हूँ कि औरतें बेवफाई को अपना ही सुरक्षित अधिकार समझती हैं . "


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Last edited by Dr. Rakesh Srivastava; 05-02-2012 at 09:12 PM.
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