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Old 05-02-2012, 09:10 PM   #4
Dr. Rakesh Srivastava
अति विशिष्ट कवि
 
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

मगर पायल ने इस व्यंग को दिल पर न लेकर अपने अतीत पर से पर्दा उठाना शुरू कर दिया . वह बोली -- " कुछ समय पूर्व तक मेरा भी एक सुखी सम्पन्न परिवार था . परिवार में मैं , मेरे माता - पिता और पिता का दूर का लगा - छुआ एक अधेड़ उम्र का रिश्तेदार था . जिसका शेष परिवार दूर गाँव में रहता था . वो मेरे पिता के फल फूल रहे व्यवसाय में उनकी सहायता करता था और बदले में प्राप्त होने वाली धनराशि से अपने परिवार का भरण - पोषण करता था . मै उसे स्वाभाविक रूप से अंकल कहकर संबोधित करती थी . कुल मिलाकर हमारा जीवन खूब हंसी - ख़ुशी बीत रहा था - - - लेकिन शायद हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के प्रतिफल स्वरूप ईश्वर की आँख में हमारी ख़ुशी खटकने लगी और उसने हमारे खुशहाल परिवार पर अपने ज़ुल्म कि बिजली गिरा दी . अचानक एक दुर्घटना में मेरे माता - पिता मारे गए . अभी मै इस सदमे से उबर भी न पायी थी कि अनायास अपने संरक्षण में आयी मेरे पिता की दौलत ने अंकल की मति भ्रष्ट कर दी . उसकी छिपी हुई बुराइयां कछुए की गर्दन की तरह निकल कर सामने आ गयीं . उसने जुए , शराबखोरी और अय्याशी में मेरी सारी संपत्ति खानी - उड़ानी शुरू कर दी . साथ ही उसने मौके का फायदा उठाकर एक और काम बड़ी चतुराई से किया . वो था अपनी चार - चार सयानी लड़कियों की ताबड़तोड़ शादी करना . चार की चारों बहनें बदकिस्मती से बदसूरत थीं . इसीलिये उसको हर लड़की की शादी के वक्त एक मोटी रकम बदसूरत बेटी पैदा करने के जुर्म में बतौर हर्जाने के दहेज़ की शक्ल में अदा करनी पड़ती थी . उसकी समस्या ये भी थी कि एक लड़की हाथ पीले करके बंदरगाह से अपना लंगर छुड़ा भी न पाती थी कि दूसरी तैयार बैठी लड़की रवानगी की सीटी बजाने लगती थी . नतीजा ये निकला कि उनको फटाफट निपटाते - निपटाते उसने मुझे कंगाल कर दिया . उसके बाद मोटी रकम के लालच में उसने मुझे एक ऐसे शराबी रईस बूढ़े के साथ ब्याहना चाहा जो कि शरीर के मामले में गीले आटे जैसा ढीला और लुजलुजा हो चुका था . जिसके गले यदि बंध जाती तो निश्चित ही शादी निभाते उसका दम फूलने पर डर बना रहता कि कहीं उसी मेरी वक्त कलाइयाँ और मांग खाली न हो जायें . सो मैंने दृढ़ता से इनकार कर दिया . इसलिए निकम्मे हो चुके अंकल को जब धन - प्राप्ति का कोई दूसरा उपाय न सूझा तो उसकी शराबी नज़र मुझ पर अटक गई . उसने मुझे बहलाने - फुसलाने का प्रयास शुरू कर दिया . वह मुझसे वेश्यावृत्ति करवाकर - - - मेरी कमाई से खुद गुलछर्रे उड़ाना चाहता था . मेरे इन्कार करने पर उसने मुझे मारना - पीटना शुरू कर दिया . बदनामी के डर से - - - मै ये बातें किसी से बताने में भी झिझकती थी . किन्तु मै अपने फैसले पर डटी रही और मेरा शराबी अंकल अपनी जिद पर अड़ा रहा . आखिर एक दिन उसने मुझे बेचने का फैसला कर लिया . और जैसा कि प्रायः होता आया है कि पहली - पहली बार औरतों के ज़िन्दा गोश्त का मूल्य अधिक होता है - - - सो एक कामी सेठ करोड़ीमल ने मेरी एक रात कि कीमत बीस हज़ार रूपये लगा दी . और दस हजार रूपये मेरे शराबी अंकल को अग्रिम दे दिये . मेरे लाख रोने - चिल्लाने और मना करने के बावजूद मेरे अनोखे अंकल का दिल नहीं पसीजा - - - और उसने मुझे उस बदमाश सेठ के गंदे हाथों मैला होने के लिए सौंप दिया . जब वो कामान्ध सेठ अपनी कोठी पर मेरे साथ जबरदस्ती अपना मुंह काला करने की कोशिश कर रहा था तो अचानक मैंने मौका पाकर कमरे में रखा स्टूल उसके सर पर दे मारा . चोट खाकर वो बेहोश हो गया . और इस तरह मै आज़ाद होकर भाग निकली ." इतना कहकर वह एक पल को शांत हो गयी - - - मगर फिर कुछ याद आते ही पुनः बोली -- " ये देखो - - - ये - - -मेरे पर्स में वो दस हज़ार रूपये अब भी हैं , जो उसने मुझे बाद में देने के लिये - - - लड़की से औरत बनाने के लिये स्टूल पर रख छोड़े थे . "
पायल की छोटी सी जिंदगी की बड़ी - बड़ी मुसीबतें सुनकर चंचल को समझते देर न लगी कि इतने बड़े - बड़े हादसे झेल चुकने के पश्चात सामान्य व्यक्ति उस दोराहे पर पहुँच जाता है , जहां से एक रास्ता तो आक्रामक प्रतिशोध की ओर जाता है ओर दूसरा पलायन वादी आत्महत्या की तरफ . अब भावावेश में राह विशेष का चयन तो काफी कुछ भुक्तभोगी की तात्कालिक मनःस्थिति पर निर्भर करता है .
पायल के परिस्थितिजन्य आत्महत्या के फैसले के कारणों से दयाद्र हो उठे चंचल ने समझाया --" लेकिन तुम्हे वो रूपये अपने साथ नहीं लाने चाहिए थे . तुम्हे वो रूपये लेने का नैतिक अधिकार तब तक नहीं बनता था - - - जब तक कि स्वेच्छा से तुम सेठ को रुपयों की मनचाही कीमत अदा न कर देती . मुझे तो डर है कि बेवकूफी वश तुम अपने पर्स में रूपये नहीं बल्कि वो अनैतिक भ्रूण डालकर ले आई हो , जो भविष्य में किसी बड़ी समस्या की शक्ल भी ले सकता है . "
पायल अपनी गलती अनुभव करती हुई बोली -- " हाँ - - - शायद तुम ठीक ही कह रहे हो - - - लेकिन उस वक्त जल्दी - जल्दी में - - - बदहवासी की हालत में तत्काल जो सूझा , सो किया . पहले मैंने सोचा था कि रूपये लेकर कहीं दूर भाग जाऊंगी और शान्त जीवन व्यतीत करूंगी - - - और यही सोचकर मैंने रूपये उठाये भी थे - - - लेकिन बाद में विचार आया - - - जहाँ जाऊंगी- - - ऐसे कामी सेठ और शराबी अंकल मिलते ही रहेंगे . जबकि मै अकेली थी -- बिल्कुल अकेली . सच - - - उस समय मैंने समझ लिया था कि स्त्री कभी भी बालिग नहीं होती . बचपन में उसे बाप की अंगुली की , जवानी में पति के आसरे की और बुढ़ापे में लड़के के सहारे की जरूरत होती है . और मेरे पास - - - मेरे पास इनका तो क्या - - - किसी का भी सहारा न था . हाँ - - - दुश्मन जरूर थे . एक नहीं , कई दुश्मन -- मेरा अंकल , मेरा रूप , मेरा अकेलापन , मेरी जवानी . और यही सब - - - ."
" यही सब सोचकर तुमने आत्महत्या का नकारात्मक फैसला कर डाला . बिना लड़े ही हथियार डाल दिए . भावना के प्रवाह में बहकर , बिना तैरने की कोशिश के ही डूब मरने को राजी हो गयी . यह तो सरासर बेवकूफी थी . एक नादान निर्णय . " चंचल ने उसकी बात काट कर कहा -- " देखो - - - हरि हर हारे को हमेशा अपनी तरफ से एक मौका और देता है . अब जबकि ईश्वर ने तुम्हें मुझसे टकरा ही दिया है तो अगर चाहो तो मन मजबूत करके फ़िलहाल तुम मेरे यहाँ रह सकती हो -- यदि यकीन हो तो . इस वक्त इतना विश्वास तो मै तुम्हें दिला ही सकता हूँ कि दुनिया केवल वैसी ही नहीं है - - - जैसी संयोग वश अब तक तुम्हारी आँखों ने देखी है . "
चंचल के अन अपेक्षित प्रस्ताव ने पायल पर संजीवनी सा कार्य किया . वह एहसान भरी नज़रों से उसकी तरफ देखती रह गई . उसकी जबान कुछ बोल न पायी मगर आँखें जबान की भरपाई कर रही थीं और इस क्षण चंचल ने पायल की पुनर्ज्योति पायी झील सी गहरी आँखों में कल - कल करते झरनों को बहते देखा . कुलांचे मारते मस्त हिरणों को लपकते देखा . टिमटिमाते दियों को अचानक भड़कते देखा . गदराई चटक - रंग कलियों को दीवार से उतरती धूप की रफ़्तार से चटक कर फूल बनते देखा . बौराए आम के बगीचों को अमियाते और उन पर कोयलों को फुदक कर कूकते देखा . जीवन की बुलबुलों को मौजों के नग्में गाते देखा . उजाले पाख की पुरवाई रात में फुलयाई नीम की डोलती डाल पर दमकते चाँद को झूलते देखा . और - - - और मासूम बया को फटाफट खूबसूरत घोसला बुनते - बनाते देखा . उसे ऐसा लगा - - - उसने पायल की आँखों में कोई अछूती किताब शुरू से अन्त तक पढ़ ली हो -- पूरी की पूरी .
थोड़ी ही देर में एक बीमार सा दवाखाना दिखा . चंचल ने मजबूरन वहीँ पायल की मरहम - पट्टी करवा दी - - - फिर अपने घर ले जाकर , अपनी छोटी बहन गेसू और पिता प्रोफ़ेसर साहब से उसका परिचय करवाकर उसे फ़िलहाल घर में ही रहने की मनचाही अनुमति ले ली .


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