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Old 05-02-2012, 09:15 PM   #5
Dr. Rakesh Srivastava
अति विशिष्ट कवि
 
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

( 2 )
सुबह के उजले पंछी ने अपने पंख पसार लिए थे और रात अपनी काली बाहें सिकोड़ चुकी थी . सूरज अपना सोना बिखेर रहा था . सुनहरी धूप खिड़की से छलांग लगाकर कमरे में आ रही थी और अपने साथ ईश्वर का ये शुभ सन्देश भी ला रही थी कि हर रात के बाद सवेरा होता ही है .
भोर की पवित्र बेला में बेला की मनमोहक महक हवा में तैर रही थी . प्रोफ़ेसर साहब कमरे से बाहर निकल कर लॉन में टहलने लगे . यह उनका प्रतिदिन का नियम था और साथ ही उनके अच्छे स्वास्थ्य का राज भी . लगभग पचपन वर्ष के युवा थे वो . क्योंकि कोई भी उन्हें सरसरी नज़र से देखकर पैंतालिस वर्ष से ऊपर का नहीं कह सकता था. कठोर परिश्रम में विश्वास करने वाले प्रोफ़ेसर साहब जेब के साथ ही स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भी काफी संपन्न थे .किसी भी कार्य को छोटा या बड़ा नहीं समझते थे - - - न ही उसे करने में कोई शर्म - संकोच करते थे . दुर्भाग्य के प्रकोप ने भरी जवानी में ही उन्हें विधुर बनाकर उनकी खुशियों पर डाका डालने का प्रयास तो किया था - - - मगर वो थे कि इससे थोड़ा ठिठकने के बाद जीवन को सम्पूर्णता के साथ जीने की कला में स्वयं को ऐसा पारन्गत बना लिया कि हँसते ही जा रहे थे . जब गेसू दो और चंचल पांच वर्ष के थे , उस वक्त उनकी माँ का आकस्मिक निधन हुआ था . इसके बाद सौतेली माँ के संभावित दुर्व्यवहार की आशंका वश उन्होंने दूसरा विवाह करने का जोखिम नहीं लिया - - - यह सोचकर कि आने वाली कहीं ममता की जगह बच्चों की जेबों में नफरत न डाल दे . और तब से लेकर अब तक उन्होंने अपने अरमानों को , कुदरती भूख को , शारीरिक मांगों को दबाये रखा और बच्चों के वास्ते बाप के साथ - साथ माँ भी बन गए . उन्हें संवारते - बनाते अपना ख़याल तक भूल गए . अब यही बच्चे उनके लिए ऊर्जा का वो सूर्य थे जिसकी परिक्रमा मात्र ही उनका जीवन - धर्म बन गया था . पोंगा पंथी पुरातन विचार उन्हें छू तक नहीं सके थे . संकीर्णताओं से उन्हें परहेज ही नहीं , बल्कि घृणा थी . जीवन के हर क्षेत्र में कुछ ख़ास होना उनके किये आम बात थी . नए पुराने की उत्तमताओं के समन्वय से जिस व्यक्तित्व का संश्लेषण हुआ था - - - उसकी संज्ञा थे प्रोफ़ेसर साहब . उर्दू जैसी मीठी ज़ुबान , हिंदी जैसा आम चेहरा , संस्कृत जैसे सात्विक विचार , पंजाबी जैसे फड़कते और अंग्रेजी जैसे बोल्ड व बेपरवाह अन्दाज़ थे उनके . सामजिक कुरीतियों की परवाह न करते हुए , उनकी धज्जियां उड़ाने वाले बेहद खुले दिमाग के और खूब मजाकिया स्वभाव के थे प्रोफ़ेसर साहब .
रोज सुबह के नियमानुसार जाग - उठ कर चंचल और गेसू कमरे से बाहर आये और उन्होंने अपने पिता प्रोफ़ेसर साहब के चरण स्पर्श कर उनमे प्रवाहित ऊर्जा - पुंज का कुछ अंश आशीर्वाद - स्वरूप स्वयं में उतारने का दैनिक प्रयास किया .
जब गेसू ने उनके पैर छुए तो अपनी आदत के अनुसार वातावरण को हास्यमय बनाने के उद्देश्य से उन्होंने चुटकी ली -- " जीती रहो बेटी - - - खुश रहो . तुम्हें राजा - सा दूल्हा और महलों - सा सुख मिले ."
" शर्मायी गेसू तुनक कर बोली -- " ये क्या - - - पिताजी आप भी - - - . "
"अच्छा बाबा , मुँह मत फुला . जा तुझे बन्दर - सा दूल्हा और झोपड़ी - सा सुख मिले . अब तो हुई खुश ? " प्रोफ़ेसर साहब उसकी बात काट कर , हंसकर बोले .
" जाइये हम आपसे नहीं बोलते . " गेसू ने बनावटी गुस्सा बिखेर कर कहा . वैसे तो वो अपने भावी दूल्हे की चर्चा से मन में एक मादक सी गुदगुदी अनुभव कर रही थी - - - लेकिन ऊपरी तौर पर गुस्सा तो प्रकट ही था - - - क्योंकि ऐसा तो सभी जवान लड़कियां करती हैं
बाप - बेटी में नोक - झोंक चल ही रही थी कि पायल भी आ गयी . सब लोग नाश्ते के लिए डाइनिंग - टेबल के इर्द - गिर्द बैठ गये . नौकरानी - - - सुन्दर व गुदाज जिस्म की चालीस वर्षीय रधिया नाश्ता ले आई . सभी लोग नाश्ता करने लगे .
तभी प्रोफ़ेसर साहब को अनुभव हुआ कि गेसू के चेहरे का प्रभा मण्डल कुछ फीका उतरा सा है . उनकी दुनिया देखी आँखों को गेसू के मन की बेचैनी भांपने में कोई कठिनाई न हुई . वैसे भी जो बाप अपने बच्चों के चेहरे के भाव देख कर उनके मन की थाह नहीं लगा लेता - - - समझो कि वो बच्चों के प्रति लापरवाह है .
" तुम कुछ उदास हो गेसू ? देख रहा हूँ - - - तुम्हारा चेहरा कुछ बुझा - बुझा सा है . " प्रोफ़ेसर साहब ने गेसू को कुरेदा .
गेसू ने बल पूर्वक मुस्करा कर बात को टालने का प्रयास किया -- " नहीं - - - ऐसी तो कोई बात नहीं . मेरे चेहरे पर रौशनी तो है - - - बस नींद पूरी न होने से - - - जरा सा वोल्टेज कम है "
चंचल और पायल उसके जवाब पर हँस दिए मगर ऐसी कई बरखा झेल चुके प्रोफ़ेसर साहब पूर्ववत गंभीर रहे .
उन्होंने शब्दों पर जोर देते हुए कहा -- " देखो बेटी - - - पैर चाहे कितने भी ऊंचे क्यों न हो जायें - - - पर रहेंगे कमर के नीचे ही .तुम अपने खोखले शब्दों पर मुस्कान की कलई चढ़ाकर मुझे फुसला नहीं सकती . सच - सच बताओ - - - बात क्या है ? "
अपने बहाने को रुई सा धुनकता देख , गेसू ने समर्पण कर कहा -- " जी - - - कल मै बैंक से साढ़े तीन हजार रूपये निकाल कर ला रही थी - - - रास्ते में पर्स कहीं गिर गया , इसी से मन परेशान था . "
" ओह - - - तो ये है तुम्हारी परेशानी का कारण ! भला इस बात से अब मन - मस्तिष्क में तनाव पैदा करने से क्या लाभ ? " जो खो गया - - - निश्चित ही वो तो अब मिलने से रहा . फिर हम - - - जो बची है - - - उस मानसिक शान्ति को क्यों खोयें ! "
" लेकिन पिताजी मुझे इस बात का बेहद दुःख है . "
" बेटी - - - जिस दुःख का कोई तात्कालिक उपाय न सूझे - - - उसका मजा लेना सीख लो तो जिन्दगी और भी खूबसूरत हो जायेगी . "
"दुखों का मजा ! भला ये कौन सी बात हुई ? "
" बेटी - - - यही तो जीने की कला है . इसे ऐसे समझो . दुःख असंतोष से उत्पन्न होता है - - - जबकि सुख संतोष से मिलता है . तुम्हें तो जीवन में बस ऐसा दृष्टिकोण विकसित करना होगा कि तात्कालिक असंतोष के कारणों के दूरगामी परिणामों की पर्तें उधेड़ कर जैसे - तैसे जबरन उनमें सन्तोष को तलाश लो . बस - - - सुख तो अपने आप हाथ आ जाएगा . "
" मै अब भी ठीक से नहीं समझी . "
" समझने की जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है तो भविष्य में सुखी सन्तुष्ट व्यक्तियों की जीवन - पद्धति पर निरंतर पैनी नजर रख कर उसका अनुकरण करने की अच्छी आदत डालो . सुखद परिणामों का स्वाद धीरे - धीरे सब समझा देगा . " प्रोफ़ेसर साहब ने समझाया और गेसू की पीठ थपथपाकर पुनः बोले -- " अच्छा चलो - - - अब सामान्य हो जाओ . यह सोचकर उदासी दूर भगाओ और तसल्ली पाओ कि लक्ष्मी चंचला है . वह किसी के पास अधिक दिनों कब ठहरी है . हो सकता है - - - तुमसे रूठ - छिटक कर वह किसी अन्य जरूरत मन्द के पास जाये और उसके बिगड़े काम बनाए . इस सूरत में भी तुम्हें उस अन्जाने की खूब दुआएं मिलेंगी - - - जो जीवन की अचल संपत्ति बन कर आड़े वक्त में जरूर तुम्हारे काम आएँगी . यही एक अब सर्वोत्तम सुखमय तरीका है तुम्हारे पास - - - मन को धीरज धराने का . "
इतना कहकर प्रोफ़ेसर साहब आँखों में सुरभीला स्नेहिल आकाश और होठों के कोर पर निश्छल मुस्कान लिए कमरे से बाहर निकल लिये . गेसू भी काफी कुछ हल्की होकर कमरे से बाहर हो ली . चंचल - पायल ही अब शेष बचे .
ऐसी अनुकूल तन्हाई में दो जवाँ दिल हों और वो गुटर गूं - गुटर गूं न करें - - - ऐसा कैसे संभव है !
" चंचल. " पायल ने राग छेड़ा .
"हूँ . " चंचल ने संगत दी .
" चंचल - - - सोचती हूँ - - - मुझ पर एहसान करके तुम अपने लिए शायद अच्छा नहीं कर रहे . "
" क्यों ? "
"क्योंकि एक जवान लड़का - - - एक जवान लड़की की मदद करे - - - और वो भी इतने बड़े पैमाने पर - - - अपने घर तक में रखने जैसी मदद करे - - - तो लोग शायद एक ही बात सोचेंगे - - - . "
" एय !" चंचल ने पायल की बात काटी .
" क्या ? " पायल नज़रें उठा कर बोली .
" कहीं तुम ही तो नहीं कुछ सोच रही , ऐसा - वैसा ? "
" कैसा ? " सिटपिटायी पायल की नज़रें झुक गयीं , चंचल की बात सुनकर .
चंचल हिम्मत जुटा कर बोला -- " पायल ! पता नहीं - - - दुनिया वाले सोचे या न सोचें - - - मैं तो इधर बीच कई दिनों से लगातार एक ही बात सोच रहा हूँ . जब से तुम मिली हो - - - मेरी साँसों में महकने लगी हो . लगता है , मै तुम्हारी जरूरत अनुभव करने लगा हूँ . अपनी जिंदगी को और बेहतर बनाने के लिए - - - तुम्हारी तमन्ना करने लगा हूँ . लगता है - - - तुमसे मिलने से पहले मै एक नीरस किताब था , जिसके कुछ ख़ास पन्ने फटकर कहीं बिखर - खो गए थे . तुम मिली , मानों वो पन्ने मिल गए . अब अगर ये पन्ने अधूरी किताब से चिपक जाएँ , तो किताब पूरी हो जाये . सच पायल - - - अगर साफ़ - साफ़ सुनना चाहो , तो मै यही कहूँगा कि तुम मुझे बेहद खूबसूरत लगने लगी हो . तुम वही हो , जो मेरे अचेतन मस्तिष्क में बसती थी . तुम मिल जाओ , तो मेरी ज़िन्दगी का नक्शा तितलियों के पंख - सा रंगीन हो जाए . एक वाक्य में - - - ज़िन्दगी के हसीं सफ़र में - - - मैं तुम्हें - - - बस तुम्हें ही हमसफ़र , हमदम और हमराज बनाना चाहता हूँ . बोलो - - - क्या मेरा साथ दोगी ? "
इतना कहकर चंचल ने भावावेश में पायल के हाथ पर हौले से अपना हाथ रख दिया . उसे लगा - - - जैसे उसने किसी मुलायम पंखों वाली चिड़िया पर हाथ रख दिया हो .
कहने को तो चंचल भावावेश में ये सब कुछ धाराप्रवाह कह गया था - - - मगर वह इस बीच नज़रें नीची ही किये था . सोचता था - - - क्या पता - - - पायल की क्या प्रतिक्रिया हो .
और तभी - - - हाँ , ठीक तभी चंचल के उस हाथ पर , जो पायल के हाथ के ऊपर था - - - दो - तीन गुनगुनी बूँदें टपकीं -- टुपुर - टुपुर - - - टप .
अचकचाए चंचल ने सकुचाई गर्दन ऊपर उठाकर देखा . देखा - - - पायल की गऊ - सी निर्मल आँखें रिस रहीं थीं
उसे रोता देखकर चंचल घबरा कर सिटपिटा गया . बोला -- " तुम बुरा मान गयी पायल ? "
" मै कौन होती हूँ बुरा मानने वाली ! सारे अधिकार तो तुमने छीन लिए हैं मुझसे . कर्तव्य भर ही अब शेष बचे हैं मेरे पास . "


इतना कहकर पायल और भी तेजी से फफक पड़ी और पागलों की तरह चंचल के हाथ को अपने सुर्ख नर्म - गर्म होटों से चूमने लगी . इधर से , उधर से , अगल से , बगल से .
अब चंचल की हलक में छलक कर अटक चुकी जान फिर से उसके दिल में लौट आयी तो उसने चैन की लम्बी सांस ली और खड़े होकर - - - पायल को अपनी ओर अधिकार पूर्वक खींचकर बलिष्ट बाहों के बंधन में भरपूर भींच लिया . उसे लगा जैसे कोई मुलायम सी गुनगुनाहट उसके सीने में दो तरफ़ा उतर जाने पर उतारू हो गयी है .
और उधर - - - पायल ने अनुभव किया कि उसकी नाज़ुक पसलियाँ कड़कडा कर कर टूट भी सकती हैं . उसके गले से एक मादक सिसकारी निकल पड़ी . फिर भी वो निर्विरोध खड़ी रही . क्योंकि उसे चंचल की बाहों में अपनी भटकती ज़िन्दगी के लिए उद्देश्य और रास्ता नज़र आने लगा . बेहतरीन मंजिल और सुरक्षित रास्ता . उसे लगा - - - उसकी अब तक की ज़िन्दगी , जो बदसूरत हकीकत थी , अब हसीं ख़्वाब बनने को है .
संयोगवश छज्जे पर खड़ी गेसू , ये दृश्य देखकर एक संतोष भरी मुस्कान बिखेर रही थी .

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