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Re: कुतुबनुमा
अब आप थोड़ी महंगी सिगरेट, थोड़ी सस्ती माचिस से सुलगाएं
मित्रो ! अगर आप मेरा सूत्र 'एकदम ताज़ा ख़बरें' देखते हैं, तो आप सवाल करेंगे कि केन्द्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत बजट पर उसमें मैंने बतौर 'प्रतिक्रिया' सिर्फ सरकारी पक्ष प्रस्तुत किया है ! एक भी विपक्षी दल की प्रतिक्रिया नहीं दी ! ऐसा क्यों ? वज़ह सिर्फ यह है कि आप सब जानते हैं कि विपक्ष का काम सिर्फ आलोचना करना है, लेकिन उनकी किसी टिप्पणी में तार्किक बात नहीं होती ! यह बजट जन-विरोधी है, यह ग़रीबों का जीना मुश्किल कर देगा, जनता की कमर करों के बोझ से दोहरी हो गई है और ... इसी प्रकार की टिप्पणियां हम पिछले साठ साल से निरंतर सुन रहे हैं और अब कान पक चुके हैं ! हां, सिर्फ सत्ता पक्ष के विचार प्रस्तुत करने के पीछे मेरा मकसद क्या है, यह मैं स्पष्ट किए देता हूं ! मेरी कामना है कि जिन मतदाताओं ने इन्हें संसद में भेजा है और इस काबिल बनाया है कि यह मंत्री बन कर ऐश करें, वही ... हां, वही जनता इनके विचारों अथवा कहें कि 'अपनी ढफली, अपना राग' से अवगत अवश्य हो, ताकि उसे इनका गला पकड़ने में आसानी हो और वह इनसे साधिकार कह सके, "महाशय, बहुत हुआ ! अब आप नीचे आ जाइए !" आपने यदि गौर से पढ़ा हो, तो एक 'मज़ाक' पर आपकी नज़र अवश्य गई होगी - 'सिगरेट महंगी, माचिस सस्ती !' यानी अब आप थोड़ी महंगी सिगरेट, थोड़ी सस्ती माचिस से सुलगाएं ! यह बजट ऐसे तमाम मजाकों से भरा हुआ है ! लेकिन ज़रा ठहरिए, इस मज़ाक में भी एक गंभीर बात छिपी हुई है, वह यह कि देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि आज एक माचिस एक रुपए में आती है ! आप उसकी कीमत कितनी कम करेंगे ? दस-बीस ... पच्चीस पैसे ? अगर कोई वित्त मंत्री से पूछे, "महाशय, ये सारे सिक्के तो आप बंद कर चुके हैं, फिर इस कम कीमत का फायदा जनता को क्या हुआ - उसे तो माचिस अब भी एक रुपए में ही मिलेगी ! इस एक माचिस की न कोई रसीद मिलती है, न किसी उपभोक्ता फोरम में इसकी कोई शिकायत ही की जा सकती है ! ऎसी स्थिति में यह फायदा किसकी जेब में जा रहा है? क्या आप कालेधन पर काबू पाने की घोषणा करते हुए उसे बढ़ाने के लिए कई और खिड़कियां नहीं खोल रहे हैं ? ... तो मेरे विचार से किसी के पास कोई जवाब नहीं है ! अगर आप आंकड़ों पर गौर करेंगे, तो दादा का कौशल अथवा चतुराई, साफ़ आपके समझ आ जाएगी ! वैसे दोष इसमें दादा का भी नहीं है, क्योंकि अब तक लगभग सभी वित्त मंत्री यही करते रहे हैं ! पिछले सालों में पेश हुए तमाम बजट की 'सस्ता यह हुआ' सूची पर नज़र डालें, नज़र तकरीबन ऎसी ही चीजें आएंगी - मच्छरदानी, चिमटा, कपड़ा धोने का साबुन, झाडू, कान कुरेदने वाली सलाई, स्वेटर बुनने वाली सलाई, लालटेन, खुरपी, चम्मच, गमछा ... आदि ! दरअसल ऎसी सामग्री बजट को ग्राम्योंमुखी साबित करने के लिए पूरी तरह मुफीद है ! यह अनुभव कर अफ़सोस होता है कि देश की अधिकांश शहरी जनता तो आज के ग्रामीण भारत से वाकिफ है ही नहीं, देश के लिए योजनाएं बनाने का जिम्मा जिन लोगों ने संभाल रखा है, उन्होंने भी कभी गांव देखा ही नहीं ! इन्हें कौन बताए, कि महाशय जिस वाशिग मशीन, टीवी, कार, एसी और फ्रिज पर आप कर बढ़ा रहे हैं, वह आज ग्रामीण भारत के लिए सामान्य चीजें हैं ! यहां मैं उन गांवों की बात नहीं कर रहा, जहां आपकी 'कृपा' से अब तक बिजली ही नहीं पहुंची है और जो आदिम अवस्था में जीने के कारण किसानों की आत्महत्याओं का अभिशाप झेलने को विवश हैं, लेकिन अब अधिकांश ग्राम्य भारत वह नहीं है, जैसा आप सोचते हैं ! कृपया गांव को देखें ... समझें और फिर उसके लिए बजट बनाएं ! यह कतई न सोचें कि देश की जनता निपट मूर्ख है, 'जैसी पट्टी हम पढ़ाएंगे, पढ़ लेगी' ! यह भूल एक दिन बहुत महंगी साबित होगी, ऐसा मेरा मानना है !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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