Re: पथ के दावेदार
उनकी खतरनाक बीमारी का समाचार पहुंचाकर उनकी रोग-शय्या के पास पहुंचना पुत्र का प्रथम और प्रधान कर्त्तव्य है। यह विषय क्या दूसरे से परामर्श करके समझना होगा? उसे यह बात याद आ गई कि रोग के मामले में अपूर्व बहुत डरता है। उसका कोमल मन व्यथा से व्याकुल होकर बाहर से कितना ही क्यों न छटपटाता रहे, रोगी की सेवा करने की उसमें न तो शक्ति है न साहस। यह भार उस पर सौंप देने के समान सर्वनाश और नहीं है। भारती यह सब जानती थी। वह यह भी जानती थी कि अपनी मां को अपूर्व कितना प्यार करता है। मां के लिए वह जो न कर सके ऐसा कोई भी काम संसार में उसके लिए नहीं है।
उनके ही पास न जा सकने का अपूर्व को कितना दु:ख है। इसकी कल्पना करके एक ओर उसके मन में जिस प्रकार करुणा पैदा हुई दूसरी ओर इस असहनीय भीरुता से, क्रोध के मारे उसका सारा शरीर जलने लगा।
भारती ने मन-ही-मन कहा, “सेवा नहीं कर सकता तो क्या इसी कारण बीमार मां के पास जाने में कोई लाभ नहीं है? इसी उपदेश की क्या अपूर्व मुझसे प्रत्याशा करता है?”
भूख न होने के कारण आज भारती ने रसोई बनाने की चेष्टा नहीं की।
दिन का जब तीसरा पहर बीत चला तब एक घोड़ागाड़ी आकर उसके दरवाजे पर खड़ी हो गई। भारती ने ऊपर की खिड़की से देखा तो आश्चर्य और आशंका से उसका हृदय भर उठा। गठरी-पोटरी आदि अपना सारा समान गाड़ी की छत पर लादकर शशि आ धमका था। पिछली रात के हंसी-मजाक को संसार में कोई भी मनुष्य ऐसी वास्तविकता में परिवर्तित कर सकता है शायद भारती इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकती थी।
भारती नीचे उतरकर बोली, “यह क्या शशि बाबू?”
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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