Re: इधर-उधर से
औरंगज़ेब की कब्र
----------------
मैंने जेब से कुछ पैसे निकाले और व्यंग्यात्मक अंदाज़ में कहा : ये लो पैसे, ले आना तेल और जला देना औरंगज़ेब की क़ब्र (मडी) पे दिया । उसके बोल मैंने अपनी डायरी में लिख लिये के कहीं मैं भूल ना जाऊँ । मेरे अन्दर से एक आवाज़ आई : "ऐ औरंगज़ेब, तेरी क़ब्र पर रात को दिया जलाने के लिये तेरी क़ब्र पर बैठा मजौर आने वाले यात्रियों से पैसे माँगता है ...
...परन्तु जिस सतगुरू को तूने दिल्ली की चाँदनी चौक में शहीद किया (करवाया), जिन साहिबजादों को तूने सरहन्द (फतेहगढ साहिब पंजाब) में ज़िन्दा दीवारों में चिनवा दिया...
...जा कर देख वहाँ पैसे के दरिया बहते हैं । भूखों को भोजन मिल रहा है । दिन रात कथा- कीर्तन के परवाह चल रहे हैं । लोग सुन-सुन कर रबी सरूर का आनंद प्राप्त कर रहे हैं ।"
और ये सब देख कर कहना पड़ता है :
"कूड़ निखुटे नानका ओड़कि सचि रही" ।।२।।
( गुरू ग्रन्थ साहिब अंग 953 ) अर्थात् "सच ने हमेशा क़ायम रहना है । सच की आवाज़ हमेशा गूँजती रहेगी । झूठ की अन्ततः हार होती है।"
__________________
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
|