दो.-राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत।।1क।।
श्रीरामजी के विरह-समुद्र में भरत जी का मन डूब रहा था, उसी समय पवन पुत्र हनुमान् जी ब्राह्मण का रूप धरकर इस प्रकार आ गये, मानो [उन्हें डूबने से बचाने के लिये] नाव आ गयी हो।।1(क)।।
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलपात।।1ख।।
हनुमान् जी ने दुर्बल शरीर भरतजी को जटाओं का मुकुट बनाये, राम ! राम ! रघुपति ! जपते और कमल के समान नेत्रों से [प्रेमाश्रुओंका] जल बहाते कुश के आसन पर बैठे देखा।।1(ख)।।