Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
नज़र का उनके बस यही सवाल होता है
पैसेवाला है जो वही कंगाल होता है
फ़साना जुल्फ का बेकार हो रहा पल पल
हुश्न के हाथ हर गला हलाल होता है
फकीरी आजकल है बहुत रोज फाका है
नेता जो बन गया वही बहाल होता है
जलाओ मत मेरे शरीर को रखो उसको
देखो आकाश से क्या कमाल होता है
लबों से रुख मेरा क्यों चूम लेते हो
जमाने मे मेरा जीना मुहाल होता है
ऊंचाई कौन जाने व्योम की बता रौनक
यहाँ तो रोज़ एक नया बवाल होता है
दीपक खत्री 'रौनक'
|