Re: मनोरंजक लोककथायें
बाघ ने उसकी बात मान ली. अब ब्राहमण ने नये सिरे से सारी दास्तान इस प्रकार सुनानी शुरू कर दी जिससे कोई बात छूट न जाये. वह इसे अधिक से अधिक लम्बा खींचना चाहता था.
“ओह, मेरी खोपड़ी को भी न जाने क्या हो गया है?” सियार सकपकाते हुये और अपने पंजे झटकते हुये बोला, “जरा मुझे समझने दो कि यह सब कैसे हुआ? आप पिंजरे के अन्दर थे, और बाघ महाराज टहलते हुये आये ... ?”
“ओफ़्फ़ो!” बाघ ने बीच में टोकते हुये कहा, “तुम भी कैसे मूर्ख हो? पिंजरे के अन्दर मैं था.”
“हाँ, अब समझ में आ गया,” सियार ने नकली डर से कांपते हुये कहा, “हाँ! तो मैं पिंजरे के अन्दर था – न – नहीं मैं नहीं – हे भगवान, ये मुझे क्या हो रहा है? चलो देखता हूँ ! बाघ महाराज ब्राह्मण के अन्दर थे, और पिंजरा टहलता हुआ वहाँ आया --- नहीं यह भी नहीं, खैर जाने दीजिये, -- आप अपना खाना शुरू करें, लगता है मुझे कुछ समझ में नहीं आएगा!”
“अरे, तुम्हें क्यों नहीं समझ में आएगा?” बाघ ने सियार की बेवकूफ़ी पर झुंझलाते हुये बात को आगे बढ़ाया, “मैं तुम्हें समझाता हूँ! इधर देखो – मैं बाघ हूँ –“
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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