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Old 05-02-2012, 10:06 PM   #16
Dr. Rakesh Srivastava
अति विशिष्ट कवि
 
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

चंचल ने कुरेदा -- " सच - सच बताओ यार ! क्या तुम्हें कोई लड़की नहीं मिली ? "
" मिलतीं तो बहुत हैं . जैसे - - - . "
" जैसे ? "
" जैसे , " गुलशन गंभीर मुस्कान बिखेर कर कहने लगा -- " स्कूल में मिलती हैं कच्ची उम्र की बच्चियां - - - जिन पर ध्यान देना खतरे से खाली नहीं है . कॉलेज में मिलतीं हैं - - - लेकिन जिस दिन से रोमान्स शुरू होता है , उसके दूसरे रोज से अधिकतर परिवारदार लड़कियां शादी की फरमाइश शुरू करके सारा मज़ा किरकिरा कर देती हैं . गली - मोहल्ले में भी मिलती हैं - - - मगर उसके भय्या - अम्मा दूरबीन लगाए देखते रहते हैं कि कहीं मीलों तक कोई लड़का उनकी लड़की की ताक में तो नहीं है . शादीशुदा औरतें भी मिलती हैं , जो आमतौर पर अपने थैले व साड़ी बाँधने के लापरवाह अन्दाज़ और खतरनाक लाल सिन्दूर , छके - थके शरीर तथा निगाहों के परम सन्तोष से पहचानी जा सकतीं हैं - - - जैसे उन्होंने अपने चेहरे पर ' हाउस - फुल ' का बोर्ड लगा रखा हो . वहां ज्यादा देर ठहरने से भी क्या फायदा ! मगर वो , जो अकेली हैं - - - और गैर शादीशुदा हैं , वो - - - . "
" क्या ? "
" वो शायर बनाकर छोड़ती हैं . " गुलशन ने पायल की तरफ तिरछी निगाह उछाल कर कहा .
पायल सकपका कर रह गयी . गेसू पायल की तरफ देखकर मुस्करा दी - - - और ना समझ चंचल भोंदुओं की तरह हँस दिया .
पार्क के बीचोबीच एक शहीद स्वतंत्रता - सेनानी की आदमकद मूर्ति आँखों में आस लिए स्थापित थी , जिसने अपना अनमोल आज दे दिया था - - - हमारे सुनहरे कल के लिए . मूर्ति के ऊपर साया करता हुआ अतीत का गवाह एक बूढ़े पीपल का पेड़ था , जिस पर चिड़ियों ने अपनी कचहरी लगा रखी थी . पंक्षियों की चीं - चूँ ने मौसम को और भी खुशगवार बना रखा था .
सामने ही एक मंदिर था .
गुलशन ने प्रस्ताव रखा -- " क्यों न हम लोग मंदिर में दर्शन को चलें ! "
" हाँ - हाँ - - - क्यों नहीं ! " चंचल ने समर्थन किया .
मगर पायल पिछड़ी -- " मैं तो नहीं जाऊंगी मंदिर - मस्जिद . "
चंचल ने टोका -- " क्यों ? "
" क्योंकि न तो मुझे धर्म के ढकोसलों पर भरोसा है और न ही धर्म परस्त लोग पसन्द हैं . "
" मगर क्यों ? हम भी तो जानें . "
" क्योंकि सभी धर्म और उनके कट्टर अनुयायी औरत को पेशाब खाना समझते हैं . पेशाब खाना ! जो स्वास्थ्य और सुविधा के लिए जरूरी तो है - - - मगर गन्दी चीज है . "
उसके कटु विचारों से मर्माहत चंचल झुंझला पड़ा और उसे डाँटते हुए बोला -- " अच्छा अपना दर्शन अपने पास रखो और सीधे से चली चलो - - - वरना दूंगा एक चपत . " फिर थोड़ा समझाते हुए कहा -- " पायल ! जरा सोचो - - - कि मनुष्य यदि एक अदृश्य शक्ति को अपना प्रणेता मानकर अगर संयमित रहता है - - - तो इस भ्रम के बने रहने में बुराई क्या ? "
मजबूर होकर पायल बेमन से सबके साथ हो ली .
थोड़ी देर बाद - - - मंदिर से बाहर निकलने पर पायल न जाने कैसे अपनी ही शामत को न्योता देकर गुलशन से पूछ बैठी -- " कहो -- - - तुमने क्या माँगा ? क्या कहा उससे ? "
" किससे ? "
" अपने भगवान से . उस पत्थर से . "
गुलशन पायल के चेहरे पर निरीह दृष्टि डालकर शायराना अंदाज़ में बोला -- " बुत बन गए जब आप , तो पत्थर से क्या कहें ! "
गुलशन के इस उत्तर से पायल सिटपिटा गयी . गेसू चौंक पड़ी और अन्जान चंचल मूर्खों कि तरह उन्हें ताकने लगा .
और तभी !
गुलशन के पाँव में चलते - चलते ठोकर लगी . वह अपना सन्तुलन खोकर गिर पड़ा . पाँव में हलकी सी मोच आ गयी . चलने में कुछ असुविधा अनुभव करने लगा . गुलशन बोला -- " अब तो मैं कहीं दूर जाऊंगा नहीं . तुम लोगों को जाना है तो जाओ . "
" मैं भी नहीं जाऊंगी . कुछ थकान सी हो रही है . " गेसू ने कहा .
चंचल ने पायल से पूछा - " तब तुम्हें चलना है या नहीं ? "
" कहाँ ? "
" सुना है- - - यहाँ से लगभग आधा मील की दूरी पर बहुत सुन्दर झरना है . "
" तब चलूंगी . " पायल ने हामी भरी .
चंचल गुलशन व गेसू को सम्बोधित करके बोला -- " हम लोग करीब घन्टे भर में वापस लौट आयेंगे . यहीं आस - पास मिलना . "
दोनों चले गये .
गुलशन ने गेसू से पूछा -- " तुम क्यों नहीं गयी ? "
" तुम जो नहीं गये . " गेसू ने मुस्कराकर कहा -- " तुम्हें क्या मंदिर के बाहर पायल की बाबत भगवान से मन्नतें मांगनें के लिये यहाँ अकेले छोड़ने की बेवकूफ़ी करती ! "
उसकी बात का जवाब न देकर गुलशन ने स्वयं एक प्रश्न पूछ लिया -- " अच्छा ये बताओ ! तुमने मन्दिर में भगवान से क्या प्रार्थना की ? "
गेसू ने चंचलता से मुस्करा कर कहा -- " बताऊँ ? "
" पूछ तो रहा हूँ . "
" मैनें कहा - - - हे दया निधान ! तुम्हारी दया से अमीर कलाकन्द और गरीब शकरकन्द खाते हैं . तुमने क्लर्क को रोटी और अफसर को डबलरोटी दी . तुमने भेड़ों को पैदायिशी ऊनी ओवरकोट दिया और मनुष्य को नंगा पैदा किया . तुमने आदमी को दाढ़ी और औरत को साड़ी दी . तुम आशिक को माशूक देते हो , माशूक को बच्चा देते हो और बच्चे को कच्छा देते हो . तुम्हारी दया से कोई मिल चलाता है और कोई चरखा चलाता है . अब हमारा भी चक्कर चला दो ना . "
" कैसा चक्कर ? किससे ? " हंसकर गुलशन ने पूछा .
गेसू ने इठलाकर जवाब दिया -- " इश्क का . तुमसे . "
अचानक गुलशन गंभीर होकर बोला -- " गेसू ! तुम्हारी बातों और व्यवहार से साफ़ झलकने लगा है कि तुम मेरे प्यार में गहरे डूबने लगी हो . और ये बात मुझ बदनसीब के लिए गर्व कि होती , मगर - - - पर याद रखो गेसू ! जो लोग इश्क को फूल समझते हैं - - - वो अक्ल के दुश्मन है . जिनमें से एक मैं भी था . ये मेरा भोग हुआ यथार्थ है कि इश्क एक टीस है , दर्द है , जलन है , तड़प है , यन्त्रणा है , कसक है , शूल है - - - लेकिन ये फूल किसी भी दशा में नहीं है . इसीलिये कहता हूँ कि कम से कम तुम समय रहते इश्क की बांहों में गिरफ्तार होने से बचो . काश ये बात - - - जो मैं तुमसे अब कह रहा हूँ , मुझे पहले पता होती , तो आज मेरा हाल यूँ बेहाल न हुआ होता . "
इतना कहते - कहते गुलशन की तबीयत कुछ बेचैन सी हो गयी - - - और ऐसे समय बदनाम सिगरेट बहुत काम आती है . उसने एक सिगरेट होठों से लगाकर सुलगा ली और एक लम्बा कश खींच कर गेसू की तरफ देखा . देखा कि वह कुछ सोच रही है .
गुलशन ने धुआं छोड़कर पूछा -- " क्या सोच रही हो ? "
" सोच रही हूँ - - - मुझसे तो मुई सिगरेट का भाग्य ही अच्छा है , जो बार - बार तुम्हारे होठों से लगती है . "
" चाहो तो तुम भी होठों से लगाकर देखो . " गुलशन ने मुस्कराकर कहा .
गेसू ने बच्चों सी मासूम मुस्कान बिखेरते हुए पूछा -- " किसे - - - तुम्हें या सिगरेट को ? "
" फिलहाल मैं सिगरेट की बात कर रहा हूँ शैतान . "
इस बीच सांझ ढल चुकी थी . मौसम की धीमी करवट के साथ उजाले पर सुरमई धुंधलके ने कब्ज़ा जमा लिया था . चाँद बादलों का घूंघट सरकाकर जमीं का नज़ारा कर रहा था .
दोनों पार्क के निकट स्थित एक झील के किनारे बैठ गए . झील के शान्त निर्मल जल में चांदी सा चमचमाता चाँद तैर रहा था . जैसा कि लोग प्रायः करते हैं - - - गेसू ने बेवजह एक कंकड़ उठाकर झील में उतराते चाँद पर बेदर्दी से दे मारा . सीधे शान्त पानी में कंकड़ गिरते ही - - - चोट से बचने के लिए , चंचल चाँद सिमट - सिकुड़कर न जाने कहाँ छुप गया - - - और थोड़ी ही देर में , खतरा टल गया जानकार फिर से ऊपर झाँक - झाँक कर शरारती बच्चे कि भाँति निशानेबाज़ को मुंह चिढ़ाने लगा .
झील के किनारे लगे मरकरी लैम्पों की तेज़ रौशनी में , पानी में तैर रही मछलियाँ साफ़ नज़र आ रही थीं . राहु की महादशा से गुज़र रहे गुलशन ने रोटी के कुछ टुकड़े पानी में फेंकने शुरू कर दिए . बार - बार पानी में गिर रहे रोटी के टुकड़ों ने मछलियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया , और मछलियाँ उनके इर्द - गिर्द जमा हो गयीं - - - जैसे चुम्बक के इर्द - गिर्द लौह - कण खिंचे आते हैं .
गेसू बोली -- " दोस्त गुलशन ! देखो - - - मछलियाँ किस तरह तेजी से रोटी की तरफ खिंची चली आ रही हैं . जैसे रोटी चुम्बक हो . "
गुलशन दार्शनिक अंदाज़ में बोला -- " ये तो प्रकृति का नियम है गेसू . मछली ही क्या - - - प्रत्येक जीव ' रोटी ' की तरफ भागता है . सच पूछो तो रोटी दुनिया में सबसे बड़ा चुम्बक है . "
" लेकिन मेरी रोटी तो तुम हो जी . जी करता है - - - तुम्हें समूचा निगल जाऊं . बस - - - हुज़ूर की हाँ की जरूरत है . "
दोनों हंस पड़े . लेकिन फिर - - - गेसू गंभीर हो गयी
वह बोली -- " गुलशन ! दोस्त - - - क्या सचमुच हम - तुम नहीं मिल सकते ? "
" गेसू ! आसमान बहुत ऊंचा है - - - और मैं धरती पर चल रहा हूँ . धरती और आसमान का मिलन कभी नहीं हो सकता . कभी भी नहीं . "
" लेकिन जरा ध्यान से दूर तक देखो , तो धरती और आसमान साफ़ मिलते नज़र आयेंगे . "
" ये तो मात्र आँखों का भ्रम है गेसू . ये संभव नहीं ."
गेसू निरुत्तर हो गयी . गुलशन विचारों में उलझ गया .
गेसू ने पूछा - " क्या सोचने लगे दोस्त ? "
" एक उलझी हुई बात याद आ गयी थी . उसी के बारे में सोच रहा था . "
" क्या ? "
" यही - - - कि कभी - कभी तुम मुझे बेहद अजीब सी लगती हो . जैसे - - - जब मेरी - तुम्हारी पहली मुलाक़ात हुई थी , तो चलते समय मैंने तुमसे एक प्रश्न पूछा था . उस वक्त तुमने जवाब बहुत उलझा हुआ और घुमाकर दिया था . "
गेसू जानबूझकर अन्जान बनते हुए बोली -- " क्या पूछा था . याद नहीं . कुछ याद दिलाओ . "
" मैंने तुमसे पूछा था - - - क्या तुम कुँवारी हो , मगर - - - . "
" मगर अब तुम पहले मेरे एक प्रश्न का ईमानदार उत्तर दो . "
" पूछो . "
" क्या तुम ब्रम्हचारी हो ? " गेसू अति ज्ञानी की तरह मुस्करायी .
गुलशन अपने ही सवाल की गिरफ्त में आकर सिटपिटा गया और गले की हड्डी उगल कर जान बचाने की नीयत से बोला -- " खैर - - - छोड़ो भी इन पेचीदा बातों को . क्या जरूरत है कि हम एक - दूसरे के सामने बेवजह बेनकाब हों ! "
" जरूरत है . दोस्त ! दोस्त - दोस्त एक - दूसरे के सामने जितना ही बेपर्दा होंगे - - - दोस्ती उतनी ही गहरी होगी . बताओ ! जवाब दो !१ "
" उंह ! अब छोडो भी . कोई और बात करो . " गुलशन ने पुनः बचना चाहा .
गेसू हंस दी - - - और उसे पुनः झेंपना पड़ा .
सामने झील के गहरे खामोश जल में एक खूबसूरत नाव तैर रही थी - - - और उस पर उसका नाम लिखा था -- ' जन्नत ' . जन्नत के ऊपर एक बोर्ड लटक रहा था ' किराए के लिए खाली ' का . यानि की जन्नत किराये पर उपलब्ध थी .
दोनों उस किराये की जन्नत के मालिक से उसका किराया पूछने चल पड़े .
और उधर !
पायल और चंचल जब थोड़ी दूर चल चुके तो झरने का रास्ता उनकी समझ से बाहर हो गया . तभी एक ग्रामीण बूढ़ा व्यक्ति दिखा . कुटिलता से लबालब उसकी चौकन्नी कंजी आँखों में जवानी की शेष शैतानी साफ़ छलक रही थी .
चंचल ने उससे पूछा -- " दादा ! झरने का रास्ता कौन सा है ? "
देहाती बूढ़े ने बड़ी ढिठाई से कहा -- " बताने का क्या दोगे बच्चा ? "
" बताने का भी लोगे ? "
" क्यों न लूँ ? आजकल जब तुम शहर वाले पानी का भी मोल लेते हो , तो पानी के झरने का रास्ता बताने का क्यों न हो ? "
" पर दादा - - - हम तो परदेसी ठहरे . बता भी दो . "
" अच्छा - - - परदेसी हो तो बताये देता हूँ . सुनो ! जिस तरफ से चाँद निकलता है , उधर बढ़ो . फिर ढलान उतर कर ध्रुव तारा निकलने की दिशा में घूम जाओ . इसके बाद नाक की सीध में चले जाओ . फिर दाहिने मुड़ो , फिर बायें जाओ . फिर बायें मुड़ो , फिर दायें जाओ . राम - राम जपते जाओ . राम जी चाहेंगे , तो पहुँच ही जाओगे . "
चंचल झुंझलाकर बोला -- " वाह ! क्या रास्ता बताया है दद्दू !! कुछ पल्ले ही नहीं पड़ा . "
" मुफ्त में रास्ता ऐसे ही बताया जाता है पुत्तर . अच्छा राम - राम . राम जी चाहेंगे , तो फिर भेंट होगी . " देहाती खींसे निपोर कर बोला और सर्र से आगे सरक लिया . वह कभी न कभी शहरी दुलत्ती झेल चुका आक्रोशित बन्दा लगता था .
पायल भौचक्की होकर उसे देखती रह गयी और चंचल अपना माथा पीटकर बोला -- " हे भगवान ! ये कौन सी बयार बहाई है तूने , जो हमारे देश के देहाती भी अब शहरी सरीखे होते जा रहे हैं . "
पायल ने दूर जाते उस बूढ़े को कुढ़ी हुई तेज आवाज़ देकर ललकारा -- " अरे बुढ़ऊ ! अपना नाम तो बताते जाओ ? बताने का दूँगी . "
" अलोका s s s . "
" हाय ! तुझे पैदा होने से किसी ने न रोका !! " पायल ने तेज आवाज़ में तुकबंदी भिड़ाई .

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