Re: कुतुबनुमा
भाषा सुधारने पर गौर करना ही होगा
मीडिया इन दिनों किस तरह बाजार के चंगुल में है, इसे वर्तमान पत्रों और चैनल्स की भाषा से समझा जा सकता है। अस्सी के दशक में देश में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। हिन्दी माध्यम के विद्यालयों ने भी अपने बोर्ड बदल कर उन पर अंग्रेजी माध्यम लिखवा दिया। आज 25 वर्ष बाद एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आ गई है, जो न ठीक से हिन्दी जानती है, न अंग्रेज़ी। हिन्दी अंकावली तो प्राय: पूरी तरह से ही गायब हो गई है। इसी का नतीजा है कि इस पीढ़ी तक पहुंचने के लिए कई अखबारों ने अपनी भाषा में जबरन अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ करा दी है। कई तो शीर्षक में ही अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल करने लगे हैं। एक समय था, जब इन अखबारों के माध्यम से लोग अपनी भाषा सुधारते थे, पर अब वही मीडिया भाषा बिगाड़ने में लगा है। कई चैनल्स पर समाचारों तथा नीचे आने वाली लिखित पट्टी में हिन्दी के साथ जैसा दुर्व्यवहार होता है, उसे देखकर सिर पीटने की इच्छा होती है। स्पष्ट है कि मीडिया का उद्देश्य इस समय केवल पैसे कमाना हो गया है। पत्र-पत्रिकाओं से लेखक व साहित्यकारों को एक पहचान मिलती है। पहले कई अखबार नए और युवा लेखकों को प्रोत्साहित करते थे, पर अब देखते हैं कि ये अखबार खास किस्म के लेखकों को ही स्थान देते हैं। अंग्रेजी लेखकों के अनुवादित लेख परोसने में भी अब हिन्दी के अखबार पीछे नहीं रहते । वे भूल जाते हैं कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वाले कम नहीं हैं, पर जब उद्देश्य केवल पैसा हो, तो इस ओर ध्यान कैसे जा सकता है ? इस बाजारवाद ने ही पेड न्यूज (विज्ञापन को समाचार की तरह छापने) के चलन को बढ़ाया है। चुनाव के समय यह प्रवृत्ति खास कर क्षेत्रीय चैनल्स व अखबारों में बहुत तीव्र हो जाती है। 100 लोगों की बैठक को विराट सभा बताना तथा विशाल सभा के समाचार को गायब कर देना, इसी कुप्रवृत्ति का अंग है। यद्यपि कुछ पत्रकारों और संस्थाओं ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई है, जो एक शुभ लक्षण है। मीडिया में समाचार और विचार दो अलग धारणाएं हैं। अखबारों में यदि संवाददाता या संपादक किसी समाचार के पक्ष या विपक्ष में कोई विचार देना चाहे, तो उसके लिए सम्पादकीय पृष्ठ का उपयोग होता है। कुछ पत्र इस नीति का पालन करते हैं, पर कई में इसका अभाव है। चैनल्स पर भी हम देखते हैं कि एंकर या संवाददाता अपने विचारों के अनुसार समाचार को तोड़-मरोड़ देता है। कई एंकर तो जानकारी देते समय वक्ताओं से सवाल पूछ-पूछ कर यहां तक हालत पैदा कर देते हैं कि वक्ता को कहना पड़ता है कि वो इस सवाल का जवाब नहीं देंगे। इससे पत्रकारिता के तय सिद्धान्तों की विश्वसनीयता तो कम होती ही है, मीडिया की प्रतिष्ठा पर भी आंच आती है। खबरों को तोड़ मरोड़ कर पेश करना अथवा उसमें अपने विचारों का समावेश कर देना, तो लोकतंत्र और जनाकांक्षा दोनों के लिए ही हानिकारक हैं। मीडिया को इससे बचना चाहिए, साथ ही भाषा की प्रस्तुति में सुधार पर पूरा ध्यान देना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ी में भाषागत ग़लतियां नहीं रहें।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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