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Old 13-01-2013, 12:53 AM   #119
Dark Saint Alaick
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Default Re: कुतुबनुमा

भटकाव पर गौर करना ही होगा

पत्रकारिता की अपनी एक संस्कृति है। खासकर भारत के संदर्भ में पत्रकारिता जन जागरण का मानो एक अनुष्ठान है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में देश में तेजी से पत्रकारिता का विकास हुआ और इसके चलते देशभक्ति,जन जागरण और समाज सुधार के भाव इसकी जड़ों में हैं। आजादी के बाद इसमें कुछ बदलाव आए और आज बाजारवादी शक्तियों का प्रभाव इस माध्यम पर इस कदर देखा जा रहा है कि लगता है मीडिया अपने मूल उद्देश्यों से निरन्तर भटकता जा रहा है। प्रभावशाली संचार माध्यम होने के नाते मीडिया में यह बदलाव क्यों आया उस पर तो हमें गौर करना ही चाहिए साथ ही, हमें मौजूदा समय में उसकी भूमिका पर भी विचार करना ही होगा। हमें तय करना होगा कि किस तरह मीडिया लोक संस्कारों को पुष्ट करते हुए अपनी जड़ों से जुड़ा रहे। साहित्य हो या मीडिया दोनों का काम है जन मंगल के लिए काम करना। राजनीति का भी यही काम है। जन मंगल हम सबका ध्येय है। लोकतंत्र का भी यही उद्देश्य है। संकट तब खड़ा होता है जब जन हमारी नजरों से ओझल हो जाता है। लोग हमारे संस्कारों का प्रवक्ता होते हैं। वह हमें बताते हैं कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं है। जन मानस की मान्यताएं ही हमें संस्कारों से जोड़ती हैं और इसी से हमारी संस्कृति पुष्ट होती है। मीडिया दरअसल अब जिस ताकत के रूप में उभर रहा है उससे तो लगता है कि वह उच्च वर्ग की वाणी बन रहा है जबकि मीडिया की पारंपरिक संस्कृति और इतिहास इसे आम आदमी की वाणी बनने की सीख देते हैं। जाहिर तौर पर समय के प्रवाह में समाज के हर क्षेत्र में कुछ गिरावट दिख रही है किंतु मीडिया के प्रभाव के मद्देनजर इसकी भूमिका बड़ी है। उसे लोगों का प्रवक्ता होना चाहिए पर वह इससे भटकता जा रहा है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हम इसकी सकारात्मक भूमिका पर विचार करें। लोगों से बेहतर संवाद से ही बेहतर समाज का निर्माण हो सकता है। मीडिया इसी संवाद का केंद्र है। वह हमें भाषा भी सिखाता है और जीवन शैली को भी प्रभावित करता है। आज खासकर दृश्य मीडिया पर जैसी भाषा बोली और कही जा रही है उससे लोगों से बेहतर संवाद कायम नहीं होता बल्कि इससे तो लगता है कि वह लोगों से दूर ही हो रहा है और बाजार ही सारे मूल्य तय कर रहा है। ऐसे में तो यही समझ में आता है कि छवि में लगातार हो रही गिरावट पर गौर करने का मीडिया के पास समय ही नहीं है। मीडिया को अब सावचेत हो ही जाना चाहिए। साथ ही समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों,साहित्यकारों को भी आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोगों की उपेक्षा कर केवल बाजार आधारित प्रस्तुति से तो लगता है कि मीडिया अपनी पूर्व की विरासत को ही गंवा रहा है जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है। इसे बचाने, संरक्षित करने और इसके विकास के लिए मीडिया को समाज को साथ लेकर आगे आना होगा तभी मीडिया अपनी भूमिका को सही ढंग से निभा पाएगा। मीडिया अगर पत्रकारिता क्षेत्र में महात्मा गांधी के योगदान को याद रखे तो तय है उसका भटकाव हो ही नहीं सकता।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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