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Originally Posted by dr. Rakesh srivastava
किसी पे हुस्न की दौलत , किसी पे थोड़ी कड़की है ;
जहां में सबसे उम्दा फिर भी नेमत सिर्फ़ लड़की है .
न जाने कौन सी शय ले के आयी है ये दुनिया में ;
सभी मर्दों के सीने में ये ख्वाहिश बन के धड़की है .
जहाँ पहुँचा दे किस्मत , पर नशा सबमें ही होता है ;
शराब आख़िर शराब ही है , दुकां भर छोटी - बड़की है .
कुछ इसकी बेबसी वरना ये काटे कान मर्दों के ;
बस अपने जिस्म के चुगलीपने से सहमी हड़की है .
है गहरी झील सी आँखों में फ़िर भी जादुई पानी ;
जो डूबे इसमें जितना , उसमें उतनी प्यास भड़की है .
मैं छज्जे से जिसे हूँ ताकता , कुछ तो इशारा दे ;
क्या उसके दिल की कुण्डी भी मेरी नज़रों से खड़की है .
मुझे तो लगता , वो भी याद करती मुझको रह - रह के ;
तभी तो आँख अक्सर मेरी ख़ुब जोरों से फड़की है .
रचयिता~~ डॉ .राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .
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डाक्टर साहब की इस अद्भुद रचना के सम्मान में कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करता हूँ ..............
कभी मिशरी सी लगती है, कभी कडवी सी लगती है
कभी सूखी नदी लगती, या बदली सी बरसती है
कवि की कल्पना सी है, सृष्टि की सृष्टि-रचना है
मेरी आँखों में रहती है, मुझे आँखों में रखती है।
हँसाने पर नहीं हँसती, मगर मुस्कान रहती है
रहे गागर में सागर सी, कदाचित ही छलकती है
शांत तो धूलि पैरों की, कुपित तो है विषम आँधी
कभी लड़ जाए ईश्वर से, कभी अपने से डरती है।
असीम स्नेह देती है, मृदुल ममता से भरती है
सहमती है, सिसकती है, सरसती है, संभलती है
ये माता है, ये बहना है, ये बेटी, पत्नी, साथी 'जय',
कभी चुपचाप रहती है, कभी ये खुल के कहती है।