Re: गांधीवादः डॉ. राममनोहर लोहिया
सामान्य सिद्धान्त निकालने की निष्ठा होने पर भी, यह सिद्धान्त अभी नाकाफी है। गांधीजी में सादगी और छोटी मशीनों पर आग्रह साफ है, जबकि दुनिया बराबर पेचीदा मशीनों और विलासिता की ओर बढ रही है, तो कम से कम दुनिया के गोरे लोग बढ रहे हैं। उनकी मिसाल का दबाव जबरदस्त है, और उनके नमूने के असर से कोई बच नहीं सकता। इसी कारण गांधीजी का आर्थिक चिन्तन स्वतत्र स्थापना से अधिक एक संशोधन है। उनके अपने देशवासी यूरोप-अमरीकी मशीनी ढांचे की नकल करने को आतुर है, और गांधीजी के संशोधन का बात अगर ज्यादा जोर से की जाये तो आसानी से रद्द कर दी जाती है। चर्खा और बिना सिले कपडे, इनके साथ अभी ही एक पुराण-पंथी गन्ध जुड गयी है, और सिद्धांत के शत्रु इसे हंसी में ही उडा देने को तैयार बैठे हैं। अगर कोई ऐसा आर्थिक चिन्तन विकसित हो सकता जो वर्तमान युग के मशीनी ढांचे से बिलकुल इनकार न करे, बल्कि उसमें गांधीवादी संशोधन को जोडें, उसके ठोस प्रतीक को नहीं, तो गांधीवाद सरकारी रूप में भी सार्थक हो सकता है। कट्टरपंथी मठी गांधीवादी ऐसे सिद्धान्त के बारे में कह सकते हैं कि उसका गांधीजी से कोई ताल्लुक नहीं। और बाल की खाल निकालने वाले आलोचक उसे एक विकृति कह कर मखौल उडा सकते हैं। लेकिने सरकार के एक नए विधेयात्मक सिद्धान्त के रूप में दुनिया उसका स्वागत करेगी।
गांधीवादी सिद्धान्त के रहन-सहन में सादगी और कमखर्ची वाले हिस्से को दुनिया के लोगों ने पसन्द नहीं किया है। किसी उल्लेखनीय संख्या में किसी पंकार के चुने हुए लोगों ने भी इसे नहीं अपनाया है। पिछडे हुए लोगों के लिए यह एक व्यंग है, और विकसित लोगों के लिए यह मजाक। फिर भी रहन-सहन की सादगी अपने आप में एक वंति है, क्योंकि यह सामान्य रूचि और अर्थव्यवस्था के विरुद्ध है। वस्तुओं की संख्या बढने और जरूरतों की संख्या घटने का द्वैध किसी हद तक नकली है, सम्पूर्ण जीवन के लिये इसमें किसी पंकार का तालमेल आवश्यक है। जो आदमी बहुत कुछ अनजाने ही, स्वभाव और आदत से अपनी जरूरतें नहीं घटाता, वह भौतिक या आध्यात्मिके दृष्टि से, या सौन्दर्यात्मक दृष्टि से भी अच्छी तरह या सुख से नहीं रह सकता। आज की दुनिया में सार्थक होने के लिये जरूरत घटाने की धारणा को सापेक्ष होना पडेगा, पूरे राष्टं की कुल संभावनाओं के संदर्भ में, या उन चीजों के संदर्भ में जो मिल सकती हैं, लेकिन स्वभाववश या सोच-समझ कर छोड दी जाती हैं। इस तरह सादगी और विलासिता की सीमाएं कुछ लचीली हैं।
सादगी गांधीवादी सिद्धान्त की अनोखी विशिष्टता नहीं है। साम्यवादी बिलकुल सादगी से रहते हैं, शायद दुनिया के सनारूढ व्यक्तियों में सबसे ज्यादा। लेकिन सादगी साम्यवादी सिद्धान्त का अंग नहीं है, गांधीवाद का है। जीवन की एक कला के रूप में सादगी से रहने की इच्छा शायद उतनी ही पुरानी है जितना विचार, और समूची मनुष्य जाति में ही कुछ खास लोगों में मिलती है।
बेल्जियम की एक औरत, जेने जेवर्ट, जो विश्वीव संघ की समर्थक भी है, पांच साल से अधिक हो गया, उनरी यूरोप में आठ आना रोज पर बसर करती रही है। यह अपने आप में एक विलक्षण घटना है। यह प्रवृत्ती अगर बढ और फैल सके तो इससे इतनी बडी वंति होगी जितनी बडी यूरोप में अभी तक नहीं हुई। समाज व्यवस्था में नैतिक नियम निकलना चाहिए, या नैतिक नियम पर आधारित व्यवस्था बननी चाहिए, अन्यथा ऐसी चीजें केवल विलक्षण या व्यवस्था का उल्लंघन रह जायेगी।
जब तक सादगी में रहने की इच्छा को आधुनिक मशीनी ढांचे में गूंथकर संस्था और विचार की एक संगत व्यवस्था नहीं बनाई जाती, तब तक कलाकार या सनकी लोग ही गांधीवाद के इस पहलू का इस्तेमाल करेंगे। जब आधुनिक मशीनों ने सम्प़ता की सम्भावना प्रस्तुत कर दी हो पुराने अनुभवों से यह बात कुछ अविीवसनीय लगती है, लेकिन दुनिया का शासक वर्ग इस पर यकीन करता हैगउस समय सम्पूर्णे त्याग का दर्शन या इससे मिलती-जुलती कोई बात निरर्थक हो जाती है। सभी मनुष्यों के लिए अच्छा रहन-सहन नीति का एक आवश्यक लक्ष्य है। लेकिन अच्छे रहन-सहन की सीमा क्या है? और कुछ थोडी-बहुत विलासिता का बंटवारा कैसे हो? नीति के संकेत-चिन्हों के रूप में नहीं, बल्कि दिशा-निर्देश के रूप में ही इन प्रश्नों का उत्तर दिया जा सकता है। लेकिन ये सवाल सम्पनि की संस्था और उसके पुरस्कार से जुडे हुए हैं। सम्पनि सम्बन्धी गांधीजी के विचारों के साथ झंझट यह है कि वे जब अस्पष्टता से निकल रहे थे तभी गांधीजी की मृत्यु हो गई, जबकि मार्क्स इस मामले में पक्के थे और उन्होंने परिवर्तन का समर्थन किया था।
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