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Old 03-02-2013, 06:06 PM   #11
jai_bhardwaj
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Default Re: कलियां और कांटे

गए दिनों, एक के बाद एक, तीन शव यात्राओं (अन्तिम यात्राओं) में शामिल हुआ। चूँकि तीनों अवसर, एक के बाद एक, लगातार आए शायद इसीलिए दो-एक बातें अधिक प्रभाव से अनुभव हुईं। इस अनुभूति के साथ ही साथ याद आया कि ये सारी बातें पहले भी, शव यात्रा में शामिल होते हुए हर बार ही अनुभव तो हुईं थी किन्तु जिस सहजता से अनुभव हुई थीं, उसी सहजता से विस्मृत भी हो गईं। इस बार याद रहीं तो केवल इसीलिए कि एक के बाद एक लगातार तीन प्रसंग ऐसे आ गए।

पहली बात तो यह अनुभव हुई कि अब समयबद्धता पर अधिक चिन्ता, सजगता और गम्भीरता से ध्यान दिया जाने लगा है। याद आ रहा है कि अधिकांश मामलों में, मृतक के परिजनों ने ही समयबद्धता को लेकर स्वतः चिन्ता जताई। कभी-कभार जब ऐसा हुआ कि बाहर से आनेवाले की प्रतीक्षा में, घोषित समय से विलम्ब होने लगा तो शोक संतप्त परिजनों के चेहरे पर क्षमा-याचना के भाव उभरने लगे।

एक बड़ा अन्तर जो मैंने अनुभव किया वह यह कि पहले शव को ‘तैयार’ करने में परिजन सामान्यतः दूर ही रहते थे। ‘मुर्दा तो पंचों का’ वाला मुहावरा मैंने बचपन में खूब सुना था और उस पर उतना ही प्रभावी अमल भी देखा था। किन्तु अब यह मुहावरा अपना अर्थ और प्रभाव खोता हुआ नजर आ रहा है। ‘अन्तिम यात्रा’ के लिए शव को ‘तैयार’ करने में परिजनों की भागीदारी लगातार बढ़ती नजर आ रही है। शुरु-शुरु में तो मुझे यह अटपटा लगा था किन्तु अब लग रहा है कि स्थितिजन्य विवशता के अधीन ऐसा करना पड़ रहा होगा। हमारी आर्थिक नीतियों ने हमारे सामाजिक व्यवहार को किस तरह से प्रभावित और परिवर्तित किया है, यह उसी का नमूना लगता है मुझे। हमारी ‘सामाजिकता’ अब प्रसंगों तक सिमटती जा रही है और हम सब भीड़ में अकेले होते जा रहे हैं। गोया, अब हम ‘अकेलों की भीड़’ में बदलते जा रहे हैं। पूँजीवादी विचार आदमी को ‘आत्म केन्द्रित’ होने के नाम ‘स्वार्थी’ (और मुझे कहने दें कि ‘स्वार्थी’ से आगे बढ़कर ‘लालची’) बनाता है। यह सोच हमारे व्यवहार को कब और कैसे प्रभावित करता है, यह हमें पता ही नहीं हो पाता। यह इतना चुपचाप और इतना धीमे होता है कि हम इसे ‘कुदरती बदलाव’ मान बैठते हैं। शायद इसीलिए, ‘मुर्दा तो पंचों का’ वाली भावना तिरोहित होती जा रही है। गाँवों की स्थिति तो मुझे पता नहीं किन्तु शहरों में तो मुझे ऐसा ही लग रहा है।

इन तीनों ही शव यात्राओं की जिस बात ने सबसे पहले और सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षित किया वह है - अर्थी को श्मशान तक पहुँचानेवालों की संख्या में कमी। तीनों मामलों में मैंने देखा कि घर पर जितने लोग एकत्र थे, उसके एक चौथाई लोग ही अर्थी के साथ श्मशान पहुँचे। शेष तीन चौथाई लोग वाहनों से पहुँचे। इनमें से अभी अधिकांश लोग शव के श्मशान पहुँचने से पहले पहुँचे। तीनों ही मामलों में मैं भी इन्हीं ‘अधिकांश लोगों’ में शामिल था। एक समय था जब मैं, नंगे पाँवों, अर्थी को लगातार कन्धा देते हुए, श्मशान तक जाया करता था। किन्तु गए कुछ बरसों से अब केवल अर्थी के उठने के तत्काल बाद, जल्दी से जल्दी, कुछ देर के लिए कन्धा देते हुए, सौ-दो सौ कदम चलता हूँ। तब तक कोई न कोई मेरी जगह लेने के लिए आ ही जाता है और मैं अर्थी छोड़ कर, अपनी चाल धीमी कर, जल्दी ही शव यात्रा के अन्तिम छोर पर आ जाता हूँ और थोड़ी देर रुक कर, अपना स्कूटर लेकर श्मशान के लिए चल देता हूँ। ऐसा करते समय मैंने हर बार पाया कि मुझ जैसा आचरण करनेवाले लोग बड़ी संख्या में हैं और जो कुछ मैंने किया वही सब, वे लोग जल्दी से जल्दी (यथा सम्भव, सबसे पहले) करके, अपने-अपने वाहन पर सवार हो चुके हैं।

लगातार तीन मामलों में यह देखने के बाद अब याद आ रहा है कि ऐसे में अर्थी ढोने का जिम्मा गिनती के कुछ लोगों पर आ जाता है। अच्छी बात यह है कि गिनती के ऐसे लोगों में अधिकांश वे ही होते हैं जो भावनाओं के अधीन यह काम करते हैं। किन्तु कुछ लोग अनुभव करते हैं (यह अनुभव ऐसे लोगों के सुनाने के बाद ही कह पा रहा हूँ) कि वे ‘फँस’ गए थे और चूँकि कोई ‘रीलीवर’ नहीं आया, इसलिए मजबूरी में कन्धा दिए रहे। ऐसे में ‘दुबले पर दो आषाढ़’ वाली उक्ति तब लागू हो जाती है जब, शव यात्रा का मार्ग विभिन्न कारणों से, अतिरिक्त रूप से लम्बा निर्धारित कर दिया जाता है। कहना न होगा कि भावनाओं के अधीन स्वैच्छिक रूप से करनेवाले हों या ‘फँस’ कर, विवशता में करनेवाले हों, दोनों ही प्रकार के लोग सचमुच में थक कर चूर हो जाते हैं। वे मुँह से तो कुछ नहीं बोलते किन्तु श्मशान पहुँचने के बाद उनकी आँखें सबको काफी-कुछ कहती नजर आती हैं।

ऐसे में मुझे हर बार लगा कि अब शव यात्रा के लिए वाहन का उपयोग अनिवार्यतः किए जाने पर विचार किया जाना चाहिए। हमने अपनी अनेक परम्पराओं में बदलाव किया है। कुछ बदलाव अपनी हैसियत दिखाने के लिए तो कुछ बदलाव स्थितियों के दबाव में स्वीकार किए हैं। शव यात्रा के मामले में हमने यह बदलाव फौरन ही स्वीकार कर लेना चाहिए। मेरा निजी अनुभव है कि जिन-जिन परिवारों ने, शव यात्रा के लिए वाहन प्रयुक्त किया, उन्हें सबने न केवल मुक्त कण्ठ से सराहा अपितु उन्हें धन्यवाद भी दिया - अधिसंख्य लोगों ने मन ही मन, कुछ लोगों ने आपस में बोलकर और कुछ लोगों ने ऐसे परिवारों के लोगों से आमने-सामने। अनेक नगरों में तो एकाधिक लोग ऐसे सामने आए हैं जो शव यात्रा के लिए अपनी ओर से निःशुल्क वाहन व्यवस्था किए बैठे हैं। मुझे याद नहीं आ रहा किन्तु हमारे नगर के एक सज्जन यह काम खुद करते हैं। वाहन भी उनका, ईंधन भी उनका और वाहन चालक भी वे खुद। अधिक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह कि यह सब करके वे ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि इस काम के लिए उन्हें माध्यम बनाया।

ऐसी बातें करने से लोग प्रायः ही बचते हैं। कन्नी काटते हैं। ऐसी बातें करना ‘अच्छा’ नहीं माना जाता। यह अलग बात है कि अधिसंख्य लोग (ताज्जुब नहीं कि ‘सब के सब’) मेरी इन बातों से सहमत हों।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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