चन्द्रबाबू अग्निहोत्री
माँग भरती रही ....... रूप रोता रहा
विवशता प्रणय की किसने है जानी,
माँग भरती रही, रूप रोता रहा ।
दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी,
ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।
धवल ज्योत्स्ना में बिखेरा सुआँचल,
तारों की सारी निशा ने पहन कर,
लुटा फिर दिया चाँद को वह सभी कुछ,
रक्खा था उसने हृदय में सँजोकर,
मिलन को उषा का सुस्वागत मिला, पर
रात रोती रही, चाँद ढलता रहा ।
दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी,
ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।
बसन्ती सुरभि में पली इक कली ने,
भ्रमर का मधुर स्वर निमंत्र्ति किया,
कली मुस्कराई, लजाई, मगर फिर,
प्रिय भ्रमर को अधर-रस समर्पित किया, बस क्षणिक गीत-गुंजन कली पा सकी,
गीत बनते रहे, स्वर बदलता रहा।
दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी,
ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।
सपनों से लिपटी बहारें मचल कर, हर रूप यौवन को पाकर लजाया, प्रणय की मधुर कल्पना तब सजाकर, अदेखे पिया को नयन में बसाया, कि सपन में पिया का अभिसार पाने, आँख जगती रही, स्वप्न सजता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।
नभ ने धरा के कपोलों को चूमा,
रुपहली किरन का सुआँचल उठाकर, धडकनें धरा की बढी फिर स्वतः ही, गगन को समर्पण किया जब लजाकर, तभी आ जगाया उन्हें रवि किरन ने, अश्रु झरते रहे, प्यार पलता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । विवशता प्रणय की किसी ने न जानी, माँग भरती रही, रूप रोता रहा। ।