Re: "हिन्दू काल गणना"
अंकगणितीय क्रियायें जैसे योग, घटाना, गुणन, भाग, वर्ग, घन और मूल नारद विष्णु पुराण में वर्णित हैं। इसके प्रणेता वेद व्यास माने जाते हैं जो 1000 ई. पू. हुए थे। ज्यामिति /रेखा गणित/ विद्या के उदाहरण 800 ई. पू. में बौधायन के शुल्व सूत्र में और 600 ई. पू. के आपस्तम्ब सूत्र में मिलते हैं जो वैदिककाल में प्रयुक्त कर्मकाण्डीय बलि वेदी के निर्माण की तकनीक का वर्णन करते हैं। हो सकता है कि इन ग्रंथों ने पूर्वकाल में, संभवतया हरप्पाकाल में अर्जित ज्यामितीय ज्ञान का उपयोग किया हो। बौधायन सूत्र बुनियादी ज्यामितीय आकारों के बारे तथा एक ज्यामितीय आकार दूसरे समक्षेत्रीय आकार में या उसके अंश या उसके गुणित में परिणत करने की जानकारी प्रदर्शित करता है उदाहरण के लिए एक आयत को एक समक्षेत्रीय वर्ग के रूप में अथवा उसके अंश या गुणित में परिणत करने का तरीका। इन सूत्रों में से कुछ तो निकटतम मान तक ले जाते हैं और कुछ एकदम शुद्ध मान बतलाते हैं तथा कुछ हद तक व्यवहारिक सूक्ष्मता और बुनियादी ज्यामितीय सिद्धांतों की समझ प्रगट करते हैं। गुणन और योग के आधुनिक तरीके संभवतः शुल्व सू़त्र वर्णित गुरों से ही उद्भूत हुए थे।
यूनानी गणितज्ञ और दार्शनिक पायथागोरस जो 6 वीं सदी ई. पू. में हुआ था उपनिषदों से परिचित था और उसने अपनी बुनियादी ज्यामिति शुल्व सूत्रों से ही सीखी थी। पायथागोरस के प्रमेय के नाम से प्रसिद्ध प्रमेय का पूर्ण विवरण बौधायन सू़त्र में इस प्रकार मिलता हैः किसी वर्ग के विकर्ण पर बने हुए वर्ग का क्षेत्रफल उस वर्ग के क्षेत्रफल का दुगुना होता है। आयतों से संबंधित ऐसा ही एक परीक्षण भी उल्लेखनीय है। उसके सूत्र में एक अज्ञात राशि वाले एक रेखीय समीकरण का भी ज्यामितीय हल मिलता है। उसमें द्विघात समीकरण के उदाहरण भी हैं। आपस्तम्ब सूत्र जिसमें बौधायन सूत्र के विस्तार के साथ कई मौलिक योगदान भी हैं 2 का वर्गमूल बतलाता है जो दशमलव के बाद पांचवें स्थान तक शुद्ध है। आपस्तम्ब में वृत्त को एक वर्ग में घेरने, किसी रेखा खंड को सात बराबर भाग में बांटने और सामान्य रेखिक समीकरण का हल निकालने जैसे प्रश्नों पर भी विचार किया गया है। छटवीं सदी ई. पू. के जैन ग्रंथों जैसे सूर्य प्रज्ञाप्ति में दीर्घ वृत्त का विवरण दिया गया है।
ये परिणाम कैसे निकाले गए इस विषय पर आधुनिक विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ का विश्वास है कि ये परिणाम अटकल विधि अथवा रूल आॅफ थंब अथवा कई उदाहरणों से प्राप्त नतीजों के साधारणीकरण से निकाले गए हैं। दूसरा मत यह है कि एकबार वैज्ञानिक विधि न्यायसूत्रों से निश्चित हो गई - ऐसे नतीजों के प्रमाण अवश्य दिए गए होंगे, मगर ये प्रमाण खो गए या नष्ट हो गए अथवा गुरुकुल प्रणाली के जरिये मौखिक रूप से उनका प्रसार हो गया और केवल अंतिम परिणाम ही ग्रंथों में सारिणीबद्ध हो गये। हर हाल में यह तो निश्चित है कि वैदिक काल में गणित के अध्ययन को काफी महत्व दिया जाता था। 1000 ई. पू. में रचित वेदांग ज्योतिष में लिखा है - जैसे मयूर पंख और नागमणि शरीर में शिखर स्थान या भाल पर शोभित होती है उसी प्रकार वेदों और शास्त्रों की सभी शाखाओं में गणित का स्थान शीर्ष पर है। कई शताब्दियों बाद मैसूर के जैन गणितज्ञ महावीराचार्य ने गणित के महत्व पर और जोर देते हुए कहाः इस चलाचल जगत में जो भी वस्तु विद्यमान है वह बिना गणित के आधार के नहीं समझी जा सकती।
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