आनन्द कहाँ है?
आनन्द कहाँ है?
भगवान बुद्ध से एक बार श्रेष्ठी सुमन्तक ने पूछा- “मन्ते।” अक्षय आनन्द की प्राप्ति का क्या उपाय है? इस पर तथागत ने उत्तर दिया- इच्छाओं को त्याग करना। प्रसंग को अधिक स्पष्ट कराने के लिए जिज्ञासु ने पूछा- बिना इच्छा के कोई कर्म तक नहीं हो सकता, फिर इच्छा न रहने से तो निष्क्रियता छा जायेगी और निर्वाह तक कठिन हो जायेगा।
भगवान ने विस्तार से बताया कि इच्छा त्याग से तात्पर्य बुद्धि एवं कर्म का परित्याग नहीं, वरन् व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं को छोड़कर आदर्शों के लिए काम करना है। शरीर रक्षा, परिवार पोषण एवं सामाजिक सुख-शाँति का ऊँचा उद्देश्य रखकर जो काम किये जायेंगे। उनमें स्वार्थान्धता नहीं रहेगी। न उनके लिए दुष्कर्म करने पड़ेंगे। सामर्थ्य भर प्रयत्न करने पर जितनी सफलता मिलेगी उसमें सन्तोष रखते हुए आगे का प्रयास जारी रखा जायगा। यही है इच्छाओं का त्याग। जिनमें किन्हीं आदर्शों का समावेश नहीं होता-लोभ और मोह की पूर्ति ही जिनका आधार होता है वे ही देय और त्याज्य मानी गई है।
ईमानदारी के साथ सदुद्देश्य लेकर मनोयोगपूर्वक श्रम किया जाए। वह कर्त्तव्य है। कर्त्तव्य कर्म करने के उपराँत जो प्रतिफल सामने आये उससे प्रसन्न रहने का नाम सन्तोष है। सन्तोष का यह अर्थ नहीं है कि जो है उसी को पर्याप्त मान लिया, अधिक प्रगति एवं सफलता के लिए प्रयत्न ही न किया जाय। ऐसा सन्तोष तो अकर्मण्यता का पर्यायवाचक हो जायगा। इससे तो व्यक्ति दरिद्र रहेगा और समाज पर पिछड़ापन छाया रहेगा। पुरुषार्थ भरे उपार्जन में से व्यक्ति की प्रतिभा निखरती है और समाज की समृद्धि बढ़ती है।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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